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Chapter 1 – जैव प्रक्रम

जैव प्रक्रम

जैव प्रक्रम- वे सभी प्रक्रम (Processes) जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण (maintenance) का कार्य करते हैं जैव प्रक्रम (Life Processes) कहलाते हैं। ये प्रक्रम हैं- पोषण, श्‍वसन, वहन, उत्सर्जन आदि।

अर्थात

जीवित शरीर में होने वाले वे सभी प्रक्रम जो जीवन के लिए अनिवार्य होते हैं, जैव प्रक्रम कहलाते हैं। पोषण, श्‍वसन, उत्सर्जन तथा वहन जैव प्रक्रम के उदाहरण हैं।

पोषण- वह विधि जिससे जीव पोषक तवों को ग्रहण कर उनका उपयोग करते हैं, पोषण कहलाता है।

अर्थात

भोजन का अन्तः ग्रहण तथा शरीर के द्वारा उसका वृद्धि, विकास व रख-रखाव में उपयोग करना पोषण कहलाता है। उदाहरण के लिए मनुष्य पोषण के रूप में खाना (भोजन) खाता है, भोजन के द्वारा मनुष्य को अपने शरीर की वृद्धि और अन्य क्रियाओं को संपन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के तत्व जैसे विटामिन, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट आदि प्राप्त होते हैं।

पोषण की विधियाँ 
जीवों में पोषण मुख्यतः दो विधियों द्वारा होता हैं।
1. स्वपोषण
2. परपोषण

स्वपोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं निर्माण करते हैं। स्वपोषण कहलाता है।

स्वपोषी- पोषण की वह प्रक्रिया जिसमें जीव अपने भोजन के लिए अन्य जीवों पर निर्भर न रहकर अपना भोजन स्वयं संश्लेषित (निर्माण) करते हैं, स्वपोषी कहलाते हैं। अर्थात जिस जीव में स्वपोषण पाया जाता है, उसे स्वपोषी कहते हैं। जैसे- हरे पौधे।

परपोषण- परपोषण वह प्रक्रिया है जिसमें जीव अपना भोजन स्वयं संश्लेषित न कर किसी-न-किसी रूप में अन्य स्त्रोतों से प्राप्त करते हैं।

परपोषी- वे जीव जो अपने भोजन के लिए अन्य स्त्रोतों पर निर्भर रहते हैं, उसे परपोषी कहते हैं। जैसे- गाय, अमीबा, शेर आदि।

परपोषण के प्रकार-
परपोषण मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
1. मृतजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने भोजन के लिए मृत जंतुओं और पौधों के शरीर से, अपने शरीर की सतह से घुलित कार्बनिक पदार्थों के रूप में अवशोषित करते हैं। मृतजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे- कवक बैक्टीरिया तथा कुछ प्रोटोजोआ।
2. परजीवी पोषण- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपने पोषण के लिए दूसरे प्राणी के संपर्क में, स्थायी या अस्थायी रूप से रहकर, उससे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी पोषण कहलाते हैं। जैसे-कवक, जीवाणु, गोलकृमि, हुकवर्म, मलेरिया परजीवी आदि।
3. प्राणिसम पोषण- वैसा पोषण जिसमें प्राणी अपना भोजन ठोस या तरल के रूप में जंतुओं के भोजन ग्रहण करने की विधि द्वारा ग्रहण करते हैं, प्राणी समपोषण कहलाते हैं। जैसे- अमीबा, मेढ़क, मनुष्य आदि।प्रकाशसंश्लेषण क्या है ? सूर्य की ऊर्जा की सहायता से प्रकाशसंश्लेषण में सरल अकार्बनिक अणु- कार्बन डाइऑक्साइड और जल का पादप-कोशिकाओं में स्थिरीकरण कार्बनिक अणु ग्लूकोज (कार्बोहाइड्रेट) में होता है।

अर्थात

पेड़-पौधे द्वारा सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अपना भोजन निर्माण करने की प्रक्रिया को प्रकाशसंश्लेषण कहते हैं।

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प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक पदार्थ-
प्रकाश संश्लेषण के लिए चार पदार्थों की आवश्यकता होती हैं-
1. पर्णहरित या क्लोरोफिल, 2. कार्बनडाइऑक्साइड, 3. जल और 4. सूर्य प्रकाश

उपापचय- सजीव के शरीर में होनेवाली सभी प्रकार की रासायनिक क्रियाएँ उपापचय कहलाती है। जैसे- अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होना, ग्लूकोज से ग्लाइकोजेन का निर्माण होना आदि।

अमीबा में पोषण

अमीबा एक सरल प्राणीसमपोषी जीव है। यह मृदुजलीय, एककोशीकीय तथा अनिश्चित आकार का प्राणी है। इसका आकार कूटपादों के बनने और बिगड़ने के कारण बदलता रहता है।

अमीबा का भोजन शैवाल के छोटे-छोटे टुकड़े, बैक्टीरिया, डायटम, अन्य छोटे एककोशिकीय जीव तथा मृत कार्बनिक पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़े इत्यादि हैं।

अमीबा में पोषण अंतर्ग्रहण, पाचन तथा बहिष्करण प्रक्रियाओं द्वारा पूर्ण होता है।

अमीबा में भोजन के अंतर्ग्रहण के लिए मुख जैसा कोई निश्चित स्थान नहीं होता है, बल्कि यह शरीर की सतह के किसी भी स्थान से हो सकता है।

अमीबा जब भोजन के बिल्कुल समीप होता है तब अमीबा भोजन के चारों ओर कूटपादों का निर्माण करता है। कूटपाद तेजी से बढ़ते हैं और भोजन को पूरी तरह घेर लेते हैं। धीरे-धीरे कूटपादों के सिरे तथा फिर पार्श्व (पार्श्व) आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह एक भोजन-रसधानी का निर्माण हो जाता है जिसमें भोजन के साथ जल भी होता है।

भोजन का पाचन भोजन रसधानी में ही एंजाइमों के द्वारा होता है। अपचे भोजन निकलने के लिए शरीर के किसी भाग में अस्थायी छिद्र का निर्माण होता है जिससे अपचा भोजन बाहर निकल जाता है।

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मनुष्य का पाचनतंत्र
वैसे अंग जो भोजन पचाने में सहायता करते हैं। उन्हें सामुहिक रूप से पाचन तंत्र कहते हैं।
आहारनाल और संबंधित पाचक ग्रंथियाँ और पाचन क्रिया मिलकर पाचनतंत्र का निर्माण करते हैं।
मनुष्य तथा सभी उच्च श्रेणी के जंतुओं में भोजन के पाचन के लिए विशेष अंग होते हैं जो आहारनाल कहलाते हैं।

आहारनाल- मनुष्य का आहारनाल एक कुंडलित रचना है जिसकी लंबाई करीब 8 से 10 मीटर तक की होती है। यह मुखगुहा से शुरू होकर मलद्वार तक फैली होती है।

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मुखगुहा- मुखगुहा आहारनाल का पहला भाग है। पाचन मुखगुहा से प्रारंभ होता है। मुखगुहा एक खाली जगह होता है जिसमें एक जीभ, तीन जोड़ा लार ग्रंथि तथा 32 दांत पाये जाते हैं।

मुखगुहा को बंद करने के लिए दो मांसल होंठ होते हैं।

जीभ के ऊपर कई छोटे-छोटे अंकुर होते हैं, जिसे स्वाद कलियाँ कहते हैं। यह भोजन के विभिन्न स्वादों जैसे मीठा, खारा, खट्टा, कड़वा आदि का अनुभव कराता है।

मनुष्य के मुखगुहा में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पाई जाती है, जिससे प्रतिदिन डेढ़ लीटर लार का स्त्राव होता है।

लार में मुख्य रूप से लाइसोजाइम, एमीलेस या एमाइलेज तथा टायलीन नामक एंजाइम पाए जाते हैं। सबसे अधिक मात्रा में टायलीन नामक एंजाइम निकलता है।

मुखगुहा में लार का कार्य-
1. यह मुखगुहा को साफ रखती है।
2. भोजन को चिपचिपा और लसलसा बना देता है।
3. यह भोजन में उपस्थित किटाणुओं को मार देता है।
4. यह स्टार्च को शर्करा (कार्बोहाइड्रट) में बदल देता है।

दाँत
दाँत में सर्वाधिक मात्रा में कैल्शियम पाया जाता है।
मानव दाँत के दो परत होता है। बाहरी परत इनामेल कहलाता है जबकि आंतरिक पर डेंटाइन कहलाता है।
मानव शरीर का सबसे कठोर भाग दाँत का इनामेल होता है जो कैल्शियम फॉस्फेट का बना होता है। इनामेल दाँतों की रक्षा करता है।

मानव दाँत चार प्रकार के होते हैं-
1. इनसाइजर (8), 2. केनाइन (4), 3. प्रीमोलर (8) और 4. मोलर (12)
एक व्यस्क मनुष्य के शरीर में 32 दाँत होते हैं। दुध के दाँतों की संख्या 20 होती है।

ग्रसनी- मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है। इसमें दो छिद्र होते हैं।
1. निगलद्वार, जो आहारनाल के अगले भाग ग्रासनली में खुलता है। तथा
2. कंठद्वार, जो श्वासनली में खुलता है। कंठद्वार के आगे एक पट्टी जैसी रचना होती है, जो एपिग्लौटिस कहलाता है। मनुष्य जब भोजन करता है तब यह पट्टी कंठद्वार को ढँक देती है, जिससे भोजन श्वासनली में नहीं जा पाता है।

ग्रासनली- यह मुखगुहा को अमाशय से जोड़ने का कार्य करता है। यह नली के समान होता है। मुखगुहा से लार से सना हुआ भोजन निगलद्वार के द्वारा ग्रासनली में पहुँचता है। भाजन के पहुँचते ही ग्रासनली की दिवार में तरंग की तरह संकुचन या सिकुड़न और शिथिलन या फैलाव शुरू हो जाता है। जिसे क्रमाकुंचन कहते हैं। ग्रासनली में पाचन की क्रिया नहीं होती है। ग्रासनली से भोजन अमाशय में पहुँचता है।

आमाशय- यह एक चौड़ी थैली जैसी रचना है जो उदर-गुहा के बाई ओर से शुरू होकर अनुप्रस्थ दिशा में फैली होती है।

आमाशय में प्रोटीन के अतिरिक्त भोजन के वसा का पाचन करता है।

अमाश्य के तीन भाग होते हैं- कार्डिएक, फुंडिक और पाइलेरिक।

अमाश्य से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल का स्त्राव होता है, जो कीटाणुओं को मार देता है और भोजन को अम्लीय बना देता है।

अमाश्य में जठर ग्रंथि पाई जाती है, जिससे जठर रस निकलता है। जठर रस में रेनिन और पेप्सिन पाया जाता है। रेनिन दूध को दही में बदल देता है तथा पेप्सीन प्रोटीन का पाचन करता है। प्रोटीन को पेप्टोन में बदल देता है।

भोजन अब गाढ़ लेई की तरह हो गया है, जिसे काइम कहते है। काइम अमाशय से छोटी आँत में पहुँचता है।

छोटी आँत- छोटी आँत आहारनाल का सबसे लंबा भाग है। यह बेलनाकार रचना है। छोटी आँत में ही पाचन की क्रिया पूर्ण होती है। मनुष्य में इसकी लंबाई लगभग 6 मीटर तथा चौड़ाई 2.5 सेंटीमीटर होती है।

शाकाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई अधिक और मांसाहारी जन्तुओं में छोटी आँत की लंबाई कम होती है।

छोटी आँत के तीन भाग होते हैं- ग्रहणी, जेजुनम तथा इलियम।

ग्रहणी छोटी आँत का पहला भाग होता है। जेजुनम छोटी आँत का मध्य भाग होता है। छोटी आँत का अधिकांश भाग इलियम होता है।

पचे हुए भोजन का अवशोषण छोटी आँत में ही होता है।

छोटी आँत में भोजन का पाचन पित्त, अग्न्याशयी रस तथा आंत्र-रस के स्त्राव से होता है।

यकृत- यह शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है जो उदर के ऊपरी दाहिने भाग में अवस्थित है। यकृत कोशिकाओं से पित्त का स्त्राव होता है। स्त्रावित पित्त पित्ताशय नामक एक छोटी थैली में आकर जमा रहता है।

पित्ताशय- इसमें यकृत द्वारा बनाया गया पित्त आकर जमा रहता है। इसमें पित्त का निर्माण नहीं होता है। पित्त भोजन को क्षारीय बना देता है क्योंकि पित्त क्षारीय होता है। इसका रंग गाढ़ा और हरा होता है। यह एंजाइम न होते हुए भी भोजन के पाचन में सहायक है।

पित्त के दो मुख्य कार्य है-
1. पित्त अमाशय से ग्रहणी में आए अम्लीय काइम की अम्लीयता को नष्ट कर उसे क्षारीय बना देता है ताकि अग्न्याशयी रस के एंजाइम उस पर क्रिया कर सके।
2. पित्त के लवणों की सहायता से भोजन के वसा के विखंडन तथा पायसीकरण होता है ताकि वसा को तोड़नेवाले एंजाइम उस पर आसानी से क्रिया कर सके।

अग्न्याशय- आमाशय के ठीक नीचे तथा ग्रहणी को घेरे पीले रंग की एक ग्रंथि होती है जो अग्न्याशय कहलाती है।
अग्नाशय से तीन प्रकार के इंजाइम निकलते हैं। इन तीनों को सामूहिक रूप से पूर्ण पाचक रस कहते हैं क्योंकि यह भोजन के सभी अवयव को पचा सकते हैं।
इससे ट्रिप्सीन, एमाइलेज और लाइपेज नामक इंजाइम स्त्रावित होते हैं।

ट्रिप्सीन- यह प्रोटीन को पचाकर पेप्टाइड में बदल देता है।

एमाइलेज- यह स्टार्च को शर्करा में तोड़ देता है।

लाइपेज- यह पित्त द्वारा पायसीकृत वसा को तोड़कर ग्लिसरोल तथा वसीय अम्ल में बदल देता है।

पचे हुए भोजन का अवशोषण इलियम के विलाई के द्वारा होता है। भोजन अवशोषण के बाद रक्त में मिल जाते हैं। रक्त शरीर के विभिन्न भागों तक वितरित कर देते हैं।

छोटी आँत में काइम (भोजन) और भी तरल हो जाता है, जिसे चाइल कहा जाता है।

बड़ी आँत- छोटी आँत आहारनाल के अगले भाग बड़ी आँत में खुलती है। बड़ी आँत दो भागों में बँटा होता है। ये भाग कोलन तथा मलाशय या रेक्टम कहलाते हैं।

छोटी आँत और बड़ी आँत के जोड़ पर ऐपेंडिक्स होती है। मनुष्य के आहारनाल में ऐपेंडिक्स का कोई कार्य नहीं है।

जल का अवशोषण बड़ी आँत में होता है।

अंत मे अपचा भोजन मल के रूप में अस्थायी तौर पर रेक्टम या मलाशय में जमा होता रहता है जो समय-समय पर मलद्वार के रास्ते शरीर से बाहर निकलते रहता है।

मुख्य बिन्दुएँ-

  • क्लोरोफिल के कारण पत्तियों का रंग हरा होता है।
  • प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हरे पौधों में होती है।
  • ग्लूकोज के एक अणु में ऑक्सीजन के 6 परमाणु होते हैं।
  • मनुष्य एवं अन्य मांसाहारी जीव सुल्युलोज का पाचन नहीं करते हैं।
  • दाँत का सबसे ऊपरी परत को इनामेल कहते हैं।
  • मुखगुहा में आहार का कार्बोहाइड्रेट भाग का पाचन होता है।
  • स्वपोषी पोषण के लिए पर्णहरित (क्लोरोफिल, सूर्य का प्रकाश, कार्बन डाइऑक्साइड और जल) आवश्यक है।
  • प्रकाश संश्लेषण क्रिया में ऑक्सीजन एक उत्पाद के रूप में बाहर निकलता है।
  • क्लोरोफिल में मैग्नेशियम पाया जाता है।
  • क्लोरोफिल वर्णक का रंग हरा होता है।
  • कवक में मृतजीवी पोषण पाया जाता है।
  • पित्तयों में गैसों का आदान-प्रदान रंध्रों द्वारा होता है।
  • शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथी यकृत है।
  • प्रकृति में ऑक्सीजन का संतुलन प्रकाश-संश्लेषण द्वारा बना रहता है।
  • पित्त यकृत से स्त्रावित होता है।
  • हरे पौधे स्वपोषी होते हैं।
  • छोटी आंत या क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है।
  • ट्रिप्सिन एंजाइम प्रोटिन को पचाने का कार्य करता है।
  • मनुष्य के आहारनाल में एपेंडिक्स एक अवशेषी अंग है।
  • अमीबा में कूटपाद पाया जाता है।
  • अमीबा अपना भोजन कूटपाद द्वारा पकड़ता है।
  • जब किसी अभिक्रिया के समय किसी पदार्थ में ऑक्सीजन की वृद्धि होती है, तो उसे उपचयन अभिक्रिया कहते हैं।
  • जब किसी अभिक्रिया के समय किसी पदार्थ में हाइड्रोजन की वृद्धि होती है, तो उसे अपचयन अभिक्रिया कहते हैं।
  • अम्ल का चभ्मान 7 से कम होता है।
  • सभी जीव-जंतुओं के लिए ऊर्जा का अंतिम स्त्रोत सूर्य है।
  • ग्लूकोज का रासायनिक सूत्र ब्6भ्12व्6है।
  • अमीबा में अधिकांश पोषण अंतर्ग्रहण द्वारा होता है।
  • क्लोरोफिल की उपस्थिति के कारण पौधे का रंग हरा होता है।
  • हाइड्रा में स्पर्शक पाया जाता है।
  • ‘न्युक्लियस’ शब्द रॉबर्ट ब्राउन के द्वार दी गई है।
  • प्रसिद्ध पुसतक ‘द माइक्रोग्राफिया’ रॉबर्ट हुक के द्वारा लिखी गई है।
  • पौधों और कोशिकाओं का वैज्ञानिक अध्ययन कोशिका विज्ञान कहलाता है।

श्‍वसन

श्‍वसन- श्‍वसन उन सभी प्रक्रियाओं का सम्मिलित रूप है जिनके द्वारा शरीर में ऊर्जा का उत्पादन होता है।

यह ऊर्जा ए.टी.पी. जैसे विशेष रासायनिक बंधन में संगृहीत हो जाती है। संगृहीत ऊर्जा का उपयोग सभी जीव ए.टी.पी. के जलीय विघटन के द्वारा करते हैं।

श्‍वसन क्रिया में ग्लूकोज- अणुओं का ऑक्सीकरण कोशिकाओं में होता है। इसीलिए, इसे कोशिकीय श्‍वसन कहते हैं।

कोशिकीय श्‍वसन-यह मानव कोशिका के अंदर होता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसके द्वारा पाचन के फलस्वरूप बना ग्लूकोज कोशिका के अंदर टूट जाता है और हमें ऊर्जा प्राप्त होता है।

संपूर्ण कोशिकीय श्‍वसन का दो अवस्थाओं में विभाजित किया गया है-
1. अवायवीय श्‍वसन- यह कोशिकाद्रव्य में पूर्ण होता है। यह ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है। अतः इसे अनॉक्सी श्‍वसनन कहते हैं।
2. वायवीय श्‍वसन- यह माइटोकोण्ड्रिया में होता है। यह ऑक्सीजन के उपस्थिति में होता है। अतः इसे ऑक्सी श्‍वसन कहते हैं।

वायवीय श्‍वसन और अवायवीय श्‍वसन में क्या अंतर है ?
वायवीय श्‍वसन और अवायवीय श्‍वसन में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-
1. वायवीय श्‍वसन ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है जबकि अवायवीय श्‍वसन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है।
2. वायवीय श्‍वसन का प्रथम चरण कोशिकाद्रव्य में तथा द्वितीय चरण माइटोकॉण्ड्रिया में पूरा होता है जबकि अवायवीय श्‍वसन की पूरी क्रिया कोशिकाद्रव्य में होती है।
3. वायवीय श्‍वसन में अवायवीय श्‍वसन की तुलना में बहुत ज्यादा ऊर्जा मुक्त होती है।

  • पौधों में श्‍वसन-पौधों में श्‍वसन श्‍वसन-गैसों का आदान-प्रदान शरीर की सतह द्वारा विसरण विधि से होता है।
  • पेड़-पौधों में गैसों का आदान-प्रदान पत्तियों के रंध्रों के द्वारा होता है।

पौधों में श्‍वसन की क्रिया जंतुओं के श्‍वसन से किस प्रकार भिन्न है-
पोधों में श्‍वसन की क्रिया जंतुओं के श्‍वसन से निम्नलिखित प्रकार से भिन्न है-
1. पौधों के प्रत्येक भाग, अर्थात जड़, तना तथा पत्तियों में अलग-अलग श्‍वसन होता है।
2. जंतुओं की तरह पौधों में श्‍वसन गैसों का परिवहन नहीं होता है।
3. पौधों में जंतुओं की अपेक्षा श्‍वसन की गति धीमी हेती है।

जंतुओं में श्‍वसन
एककोशिकीय जीव जैसे अमीबा, पैरामीशियम में श्‍वसन कोशिका झिल्ली से विसरण विधि द्वारा होता है।
बहुकोशिकीय जीव हाइड्रा में श्‍वसन गैसों का आदान-प्रदान शरीर की सतह से विसरण के द्वारा होता है।

उच्च श्रेणी के जंतुओं में समान्यतः तीन प्रकार के श्‍वसन अंग होते हैं-
1. श्वासनली या ट्रैकिया
2. गिल्स तथा
3. फेफड़े

श्वासनली या ट्रैकिया- ट्रैकिया द्वारा श्‍वसन किटों, जैसे टिड्डा तथा तिलचट्टा में होता है।

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2. गिल्स- गिल्स विशेष प्रकार के श्‍वसन अंग हैं जो जल में घुलित ऑक्सीजन का उपयोग श्‍वसन के लिए करते हैं। श्‍वसन के लिए गिल्स का होना मछलियों के विशेष लक्षण है। मछलीयों में गिल्स द्वारा श्‍वसन होता है।

3. फेफड़ा- वर्ग एंफीबिया (जैसे मेढ़क) में फेफड़े के अतिरिक्त त्वचा तथा गिल्स से भी श्‍वसन होता है।

रेप्टीलिया (जैसे सर्प, लिजर्ड, कछुआ तथा मगरमच्छ) तथा उच्चतम श्रेणी के वर्टिब्रेटा जैसे एवीज (पक्षी) तथा मैमेलिया (जैसे मनुष्य) में श्‍वसन सिर्फ फेफड़ों से होता है।

श्‍वसन अंग- मनुष्य में नासिका छिद्र, स्वरयंत्र या लैरिंक्स, श्वासनली या ट्रैकिया तथा फेफड़ा मिलकर श्‍वसन अंग कहलाते हैं।

मानव का श्‍वसन मार्ग- मानव जब श्‍वसन करता है तो वायु जिस मार्ग का अनुसरण करती है, तो उस मार्ग को ही श्‍वसन मार्ग कहा जाता है।

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श्‍वसन मार्ग निम्नलिखित है-

  1. नासिका छिद्र
  2. ग्रसनी
  3. स्वरयंत्र
  4. श्वासनली
  5. ब्रोंकाई (श्वसनिय)
  6. ब्रोंकीयोलस (श्वसनिका)
  7. वायुकोष
  8. रूधिर
  9. कोशिका

डायफ्राम- यह वक्ष गुहा के नीचे तथा उदर गुहा के ऊपर पाया जाता है। यह संयोजी ऊतक का बना होता है। निःश्‍वसन में यह 75 प्रतिशत योगदान करता है।

डायफ्राम टूट जाने पर व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है।

  1. नासिका छिद्र- नाक का भाग होता है, इसी भाग से वायु अन्दर जाती है।
  2. ग्रसनी- यह नासिका छिद्र के नीचे और मुखगुहा के पीछे पाया जाता है। इस मार्ग से भोजन और वायु दोनों जाते हैं।
  3. स्वरयंत्र- ग्रसनी कंठद्वार के ठीक नीचे एक छोटी रचना स्वरयंत्र में खुलती है। यह ग्रसनी के ठीक नीचे पाया जाता है। यह आवाज निकालने में सहायक होता है।

फेफड़ा- यह मानव के वक्षगुहा में पाया जाता है। यह मानव का मुख्य श्‍वसन अंग है। इसकी संख्या दो होती है। यह प्लूरल मेम्ब्रेन नामक झिल्ली द्वारा ढ़का होता है। फेफड़ा का कार्य रक्त को शुद्ध करना होता है अर्थात फेफड़ा रक्त में ऑक्सीजन मिलाकर उसे शुद्ध करता है।

यह सीने के 12 जोड़ी पसलियों के बीच स्थित होता है।

  1. श्वासनली- इसके द्वारा वायु फेफड़े के अंदर जाती है। ट्रैकिया या श्वासनली आगे चलकर दो भागों में विभाजित हो जाती है, जिसे ब्रोंकाई कहते हैं। ब्रोंकाई आगे जाकर कई शाखाओं में विभाजित हो जाती है, जिसे ब्रोंकियोलस या श्वसनिका कहते हैं।
  2. वायुकोष- श्वसनिका फेफड़े के अंदर पतली शाखाओं में बँट जाती है। ये शाखाएँ छोटी-छोटी गोल संरचना में विभाजित होती है। जिसे वायुकोष कहते हैं।

वायुकोष की संख्या 3×108 होती है।

श्‍वसन क्रिया- श्‍वसन दो क्रियाओं का सम्मिलित रूप है। पहली क्रिया में हवा नासिका से फेफड़े तक पहुँचती है जहाँ इसका ऑक्सीजन फेफड़े की दीवार में स्थित रक्त कोशिकाओं के रक्त में चला जाता है। इस क्रिया को प्रश्वास कहते हैं।

इसके विपरित, दूसरी क्रिया उच्छ्वास कहलाती है जिसके अंतर्गत रक्त से फेफड़े में आया कार्बन डाइऑक्साइड बची हवा के साथ नासिका से बाहर निकल जाता है।

श्‍वसन की दो अवस्थाएँ प्रश्वास तथा उच्छ्वास मिलकर श्वासोच्छ्वास कहलाती है।

फेफड़े में श्‍वसन गैसों का आदान-प्रदान- शरीर के विभिन्न भागों से ऑक्सीजनरहित रक्त फेफड़ा में पहुँचता है। रक्त में उपस्थित हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन से संयोग करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन में परिवर्तित हो जाता है जो रूधिर परिसंचरण के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों तक कोशिकाओं में पहुँच जाता है। हीमोग्लोबीन ऑक्सीजन कोशिकाओं के दे देता है और कार्बनडाइऑक्साइड को अपने साथ बाँध लेता है। जो कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन कहलाता है। कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन परिसंचरण के माध्यम से फेफड़े में पहुँच जाता है। कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन अर्थात रक्त में घुला हुआ कार्बनडाइऑक्साइड फेफड़े के द्वारा नासिका से बाहर निकल जाता है।

महत्‍वपूर्ण बिंदूएँ—

  • भोजन का पचना उपचयन अभिक्रिया है।
  • टी०बी० निमोनिया श्‍वसनतंत्र से संबंधित है।
  • अवायवीय श्‍वसन में इथाइल अल्कोहल और कार्बन डाइऑक्साइड बनता है। इस प्रक्रिया को किण्वन कहते हैं।
  • ज्च्को कोशिका का ऊर्जा मुद्रा कहा जाता है अर्थात कोशिका की ऊर्जा को।ज्च्कहते हैं।
  • माइटोकॉण्ड्रिया में पायरुवेट के विखण्डन से कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा प्राप्त होता है।
  • निःश्वास द्वारा निकली वायु में ब्व्2 रहती है।
  • वायवीय श्‍वसन से अधिक ऊर्जा मुक्त होता है।
  • मछली का श्‍वसन अंग गिल्स है।
  • पौधों में गैसों का आदान-प्रदान रंध्रों द्वारा होता है।
  • तिलचट्टा में 20 जोड़े श्वास रंध्र पाये जाते हैं।
  • श्‍वसन के अंतिम उत्पाद CO2, H2O और ऊर्जा है।
  • पौधों में श्‍वसन जड़, तना तथा पत्तियों सभी में होता है।

परिवहन

उपयोगी पदार्थों को शरीर के प्रत्येक कोशिका तक पहुँचाना और अनुपयोगी पदार्थों को कोशिकाओं से निकालकार गंतव्य स्थान तक पहुँचाने की क्रिया को पदार्थों का परिवहन कहते हैं।

मानव शरीर में परिवहन मुख्य रूप से रक्त एवं लसिका के द्वारा होता है।

पौधों में पदार्थों का परिवहन

एककोशिकीय पौधों, जैसे क्लैमाइडोमोनास, यूग्लीना एवं सरल बहुकोशीकीय शैवालों में पदार्थों का परिवहन विसरण द्वारा होता है।

पौधों में परिवहन मुख्य रूप से जाइलम और फ्लोएम ऊतकों के द्वारा होता है।

जाइलम- यह जल-संवाहक ऊतक है। इसमें पाई जानेवाली वाहिकाएँ एवं वाहिनिकाएँ मुख्य रूप से जल एवं खनिज लवणों के स्थानांतरण में सहायक होती हैं।

फ्लोएम- यह संवहन बंडल का दूसरा जटिल ऊतक है तथा इसमें पाई जानेवाली चालनी नलिकाएँ का मुख्य कार्य पौधे के हरे भागों में निर्मित भोज्य पदार्थों को दूसरे भागों में वितरित करता है।

जाइलम एवं फ्लोएम में  क्या अंतर है ?

जाइलम एवं फ्लोएम में मुख्य अंतर निम्नलिखित है-

  1. 1. जाइलम की कोशिकाएँ मृत होती है जबकि फ्लोएम की कोशिकाएँ जीवित होती है
  2. जाइलम जल एवं घुलित खनिज का स्थानांतरण करता है जबकि फ्लोएम खाद्य पदार्थो का स्थानांतरण करता है
  3. जाइलम में जल एवं घुलित खनिज लवणों का बहाव ऊपर की और होता है जबकि फ्लोएम में खाद्य पदार्थो का बहाव ऊपर एवं निचे दोनों तरफ परिवहन होता है।

वाष्पोत्सर्जन- पौधों के वायवीय भागों से जल का रंध्रों द्वारा वाष्प के रूप में निष्कासन की क्रिया वाष्पोत्सर्जन कहलाती है।

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  • पौधों के पित्तयों में सुक्ष्म छिद्र पाई जाती है, जिसे रंध्र कहते हैं। रंध्रों के माध्यम से श्‍वसन तथा वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है।
  • परासरण विधि द्वारा पौधों में वाष्पोत्सर्जन होता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण जल का संचलन जाइलम ऊतकों से रंध्रों के तक हमेशा होता रहता है।
  • पौधों की जड़ से चोटी तक जल का प्रवाह वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है।
  • वाष्पोत्सर्जन के कारण पौधों का तापमान स्थिर रहता है।
  • पौधे के एक भाग से दूसरे भाग में खाद्य पदार्थो के जलीय घोल के आने जाने को खाद्य पदार्थो का स्थानांतरण कहा जाता है।

जंतुओं में परिवहन

उच्च श्रेणी के जंतुओं में ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, पोषक तत्वों, हार्मोन, उत्सर्जी पदार्थों आदि को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुँचाने के लिए एक विशेष प्रकार का परिवहन तंत्र होता है।

रूधिर, हृदय और रक्त वाहिनियाँ परिसंचरण तंत्र या रक्त परिवहन तंत्र का निर्माण करते हैं। लसीका तंत्र भी परिवहन तंत्र का निर्माण करता है।

रक्त परिवहन तंत्र

रक्त लाल रंग का गाढ़ा क्षारीय तरल पदार्थ है, इसका pH मान 7.4 होता है। रक्त को तरल संयोजी उत्तक कहते है।

1. रक्त को तरल संयोजी ऊतक क्यों कहते हैं ?
उत्तर—रक्त अपने प्रवाह के दौरान सभी प्रकार के ऊतकों का संयोजन करता है, इसलिए रक्त को तरल संयोजी ऊतक कहते हैं।
रक्त की संरचना- रक्त के दो  प्रमुख घटक होते है।
1. तरल भाग जो प्लाज्मा कहलाता है।
2. ठोस भाग जिसमे लाल रक्त कोशिकाएँ, श्वेत रक्त कोशिकाएँ तथा रक्त पट्टिकाणु होते हैं।

प्लाज्मा- यह हलके पिले रंग का चिपचिपा द्रव है जो आयतन के हिसाब से पुरे रक्त का करीब 55 प्रतिशत होता है, जिसमें करीब 90% जल, 7% प्रोटीन, 0.9% अकार्बनिक लवण, 0.18% ग्लुकोज, 0.5% वसा तथा शेष अन्य कार्बनिक पदार्थ होते है।

प्लाज्मा में फाइब्रिनोजिन, प्रोथ्रोंबिन तथा हिपैरिन प्रोटीन पाये जाते हैं, जो रक्त को थक्का बनाने में सहायक होते हैं।

रक्त कोशिकाएँ- आयतन हिसाब से रक्त कोशिकाएँ कुल रक्त के करीब 45 प्रतिशत भाग है।

रक्त का रंग लाल क्यों ?

लाल रक्त कोशिकाओं में एक विशेष प्रकार का प्राटीन वर्णक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। हीमोग्लोबिन के कारण ही रक्त का रंग लाल दिखता है।

लाल रक्त कोशिकाएँ- यह ऑक्सीजन को शरीर के विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचाने का कार्य करता है तथा कार्बन डाइऑक्साइड को फेफड़ों तक पहुँचाने का कार्य करता है। लाल रक्त कोशिका में न्यूक्लियस नहीं होता है।

लाल रक्त कोशिका का जीवनकाल 120 दिन होता है। इसमें हिमोग्लोबीन पाया जाता है, जिसके कारण इसका रंग लाल होता है। हिमोग्लोबीन में लोहा पाया जाता है।

श्वेत रक्त कोशिकाएँ- ये अनियमित आकार के न्यूक्लियस युक्त कोशिकाएँ हैं। इनमें हीमोग्लोबिन जैसे वर्णक नहीं होते हैं, जिसके कारण ये रंगहीन होती है। इनकी संख्या लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में बहुत कम होती है।

रक्त पट्टिकाणु- ये रक्त को थक्का बनाने में मदद करते हैं।

मनुष्य का हृदय- हृदय एक अत्यंत कोमल, मांसल रचना है, जो वक्षगुहा के मध्य में पसलियों के नीचे दोनों फेफड़ों पके बीच स्थित होता है। यह रक्त को पंप करने का कार्य करता है।

यह हृद्-पेशियों का बना होता है। यह पेरिटोनियम की एक दोहरी झिल्ली के अंदर बंद रहता है, जिसे पेरीकार्डियम कहते हैं।

मनुष्य तथा मैमेलिया वर्ग के सभी जंतुओं के हृदय में चार वेश्म होते हैं जो दायाँ और बायाँ अलिंद तथा दायाँ और बायाँ निलय कहलाते हैं।

मछली के हृदय में तीन वेश्म होते हैं। उभयचर जैसे मेढ़क, सरीसृप जैसे साँप, छिपकली के हृदय तीन वेश्म के होते हैं।

हृदय की धड़कन का तालबद्ध संकुंचन एक विशेष प्रकार के तंत्रिका ऊतक के द्वारा होता है जिसे S-A नोड या पेसमेकर कहते हैं। यह बहुत ही मंद विद्युत धारा उत्पन्न करता है।

रक्त वाहिनियाँ

रक्त के परिसंचरण के लिए शरीर में तनी प्रकार की रक्त वाहिनियाँ होती है जो धमनियाँ, रक्त केशिकाएँ तथा शिराएँ कहलाती है।

धमनी और शिरा में अंतर-

धमनीशिरा
1. धमनी में शुद्ध रक्त या ऑक्सीजनित रक्त का प्रवाह हृदय से शरीर के विभिन्न विभिन्न अंगों में होता है।1. शिरा में अशुद्ध रक्त या विऑक्सीजनित रक्त का प्रवाह शरीर के विभिन्न विभिन्न अंगों से हृदय की ओर होता है। 
2. धमनी की दिवारें मोटी, लचीली औ कपाटहीन होती है।2. शिरा की दिवारें पतली और कपाटयुक्त होती है। 
3. यह शरीर में अधिक गहराई में पाया जाता है। इसमें रक्त का दाब और चाल दोनों अधिक होता है।3. यह शरीर में कम गहराई में पाया जाता है। इसमें रक्त का दाब और चाल दोनों कम होता है।
4. सिर्फ फुफ्फुस धमनी में अशुद्ध रक्त का प्रवाह होता है, जो अशुद्ध रक्त को हृदय से फेफड़ा में ले जाने का कार्य करता है।4. सिर्फ फुफ्फुस शिरा में शुद्ध रक्त का प्रवाह होता है, जो शुद्ध रक्त को फेफड़ा से हृदय की ओर ले जाने का कार्य करता है।

धमनी- ये शुद्ध या ऑक्सीजन जनित रक्त को शरीर के विभिन्न हिस्सों में ले जाती है। इसकी दिवारें मोटी, लचीली तथा कपाटहीन होती है।

केशिकाएँ- ये बहुत ही महीन रक्त नलिकाएँ होती हैं। इसकी दीवार जल, पचे हुए भोज्य पदार्थ एवं उत्सर्जी पदार्थ, ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड के लिए पारगम्य होती है।

धमनी विभिन्न केशिकाएँ में बँट जाती है। विभिन्न केशिकाएँ मिलकर शिरिकाएँ बनाती हैं और विभिन्न शिरिकाएँ आपस में जुड़कर शिरा बनाती है।

शिराएँ- यह अशुद्ध या ऑक्सीजन रहित रक्त को विभिन्न अंगों से हृदय की ओर ले जाती है। शिराओं में हृदय की खुलनेवाले कपाट लगे होते हैं जो रक्त को केवल हृदय की ओर जाने देते हैं।

लसिका- लसिका हल्के पीले रंग का तरल होता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएँ पाई जाती है, लेकिन लाल रक्त कोशिकाएँ और प्लेटलेट्स नहीं पाए जाते हैं।

शरीर में बहुत सारी लसिका ग्रंथि पाई जाती है। यह शरीर को संक्रमण से बचाती है।

रक्तचाप- महाधमनी एवं उनकी  मुख्य शाखाओं  में रक्त का दबाव रक्तचाप कहलाता है।

एक स्वस्थ व्यक्ति का सामान्य स्थिति में सिस्टोलिक प्रेशर/डायस्टोलिक प्रेशरत्र 120/80 होता है। यही रक्तचाप कहलाता है।

रक्तचाप की माप एक विशेष उपकरण द्वारा की जाती है। यह उपकरण स्फिगमोमैनोमीटर कहलाता है।

सामान्य से अधिक उच्च रक्तचाप हाइपरटेंशन कहलाता है।

हाइपरटेंशन किसी रोग, मानसिक चिंता, उत्सुकता आदि से सम्बंधित हो सकता है। इसके कारण कभी-कभी हृद्याघात भी हो जाता है।

सामान्य से नीचे निम्न रक्तचाप हाइपोटेंशन कहलाता है।

हृदय की धड़कनों को मापने के लिए स्टेथोस्कोप का प्रयोग किया जाता है।

महत्‍वपूर्ण तथ्‍य—

  • एक मिनट में हृदय 72 बार धड़कता है।
  • खुला परिसंचरण तंत्र तिलचट्टा में पाया जाता है।
  • मानव हृदय में कोष्ठों की संख्या 4 होती है।
  • मानव हृदय का औसत प्रकुंचन दाब लगभग 120 mm Hg होता है।
  • हृदय से रक्त को सम्पूर्ण शरीर में निलय द्वारा पंप किया जाता है।
  • हीमोग्लोबीन की कमी से एनीमीया नामक रोग होता है।
  • सामान्य अनुशिथिलन रक्त दाब 80 mm होता है। निलयों के शिथिलन या प्रसारण से रक्त पर उत्पन्न दाब अनुशिथिलन दाब कहते हैं।
  • मनुष्य में श्वेत रक्त कोशिकाओं की जीवन अवधि 12 से 20 दिन होती है। लाल रक्त कोशिकाओं की जीवन अवधि 120 दिन और प्लेट्लेट्स की जीवन अवधि 3 से 5 दिन होती है।
  • मक्खी में हीमोग्लोबीन नहीं होता है।
  • रुधिर तरल संयोजी ऊतक है।
  • प्लेटलेट्स रक्तस्त्राव को रोकने में मदद करता है।
  • पादप में जाइलम जल के वहन के लिए उत्तरदायी है।
  • सबसे तेज हृदय धड़कन चूहा का होता है।
  • फ्लोएम ऊतकों द्वारा कार्बोहाइड्रेट का परिवहन फ्रकटोज के रूप में होता है।
  • रक्त तरल संयोजी ऊतक है।
  • चालनी नलिकाएँ फ्लोएम में पायी जाती है।
  • मानव हृदय पेरिकार्डियम नामक झिल्ली से घिरा होता है।
  • ऑक्सीजन का वाहक RBC होता है।
  • पौधों में वाष्पोत्सर्जन पत्ति‍यों के माध्यम से होता है।

उत्सर्जन

उत्सर्जन- जीवों के शरीर से उपापचयी क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना उत्सर्जन कहलाता है।

जल संतुलन- शरीर में जल की मात्रा का संतुलन जल संतुलन कहलाता है।

उत्सर्जी पदार्थ- जंतुओं के शरीर में बननेवाला ऐसे पदार्थ जो हानिकारक होते हैं, उसे उत्सर्जी पदार्थ कहते हैं। जैसे अमोनिया, यूरिया या यूरिक अम्ल आदि।

जंतुओं में उत्सर्जन

उत्सर्जी अंग- वैसा अंग जो शरीर से अपशिष्ट पदार्थ (खराब पदार्थ) बाहर निकालते हैं, उसे उत्सर्जी अंग कहते हैं। जैसे- फेफड़ा बलगम का उत्सर्जन करता था तथा वृक्क यूरिया का उत्सर्जन करता है।

अमीबा में उत्सर्जन विसरण विधि द्वारा होता है।

मनुष्य में उत्सर्जन- मनुष्य एवं समस्त वर्टिब्रेटा उपसंघ के जंतुओं में वृक्क सबसे महत्वपूर्ण उत्सर्जी अंग है।

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वृक्क से संबंद्ध अन्य रचनाएँ जो उत्सर्जन में भाग लेती हैं, वे हैं मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग।

मनुष्य में एक जोड़ा वृक्क होता है, जो सेम के बीज के आकार का होता है।

प्रत्येक वृक्क का भार 140 gm होता है।

प्रत्येक वृक्क से लगभग 1,30,000 सूक्ष्म नलिकाएँ (Micro tubules) होती है जिन्हें वृक्कक या नेफ्रॉन (Nephron) कहते हैं। नेफ्रॉन वृक्क की कार्यात्मक इकाई (Functional Unit of Kidney) होती है। नेफ्रॉन को उत्सर्जन इकाई भी कहा जाता है।

वृक्क रक्त के शुद्धिकरण का कार्य करता है।

वृक्क के बाहरी भाग को प्रातंस्थ भाग या कार्टेक्स जबकि आंतरिक भाग को अंतस्थ भाग या मेडुला कहते हैं।

नेफ्रॉन की संचरना

वृक्क की इकाई को नेफ्रॉन कहते हैं। प्रत्येक वृक्क में 10 लाख नेफ्रॉन होते हैं। प्रत्येक नेफ्रॉन के शुरू वाले हिस्से पर प्याले जैसी रचना होती है, जिसे बोमैन-संपुट कहते हैं।

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वृक्क के कार्य- वृक्क के निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य हैं-

(a) वृक्क स्तनधारियों एवं अन्य कशेरुकी जन्तुओं में उपापचय क्रिया के फलस्वरूप उत्पन्न विभिन्न अपशिष्ट पदार्थों को मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है।

(b) यह रक्त में हाइड्रोजन आयन सांद्रता (pH) का नियंत्रण करता है।

(c) यह रक्त के परासरणी दाब तथा उसकी मात्रा का नियंत्रण करता है।

(d) यह रुधिर तथा ऊतक द्रव्य में जल एवं लवणों की मात्रा को निश्चित कर रुधिर दाब बनाए रखता है।

(e) रुधिर के विभिन्न पदार्थों का वर्णात्मक उत्सर्जन कर वृक्क शरीर की रासायनिक अखण्डता बनाने में सहायक होता है।

(f) शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने की अवस्था में विशेष एन्जाइम के स्रवण से वृक्क एरिथ्रोपोइटिन (Erythropoietin) नामक हार्मोन द्वारा लाल रुधिराणुओं के तेजी से बनने में सहायक होता है।

(g) यह कुछ पोषक तत्त्वों के अधिशेष भाग जैसे शर्करा, ऐमीनो अम्ल आदि का निष्कासन करता है।

(h) यह बाहरी पदार्थों जैसे दवाइयाँ, विष इत्यादि जिनका शरीर में कोई प्रयोजन नहीं होता है, उनका निष्कासन करता है।

(i) शरीर में परासरण नियंत्रण (Osmoregulation) द्वारा वृक्क जल की निश्चित मात्रा को बनाए रखता है।

वृक्क का कार्य- वृक्क द्वारा मूत्र-निर्माण या उत्सर्जन की क्रिया निम्नलिखित तीन चरणों में पूर्ण होती है।

1. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन
2. ट्यूबुलर पुनरवशोषण
3. ट्यूबुलर स्त्रवण

1. ग्लोमेरूलर फिल्ट्रेशन- ग्लोमेरूलर एक छन्ना की तरह कार्य करता है। रक्त के साथ यूरिया, यूरिक अम्ल, जल, ग्लूकोज, लवण, प्रोटीन इत्यादि ग्लोमेरूलर में छनते हैं।

2. ट्यूबुलर पुनरवशोषण- यह उन पदार्थों को शोषित कर लेती हैं जिनकी आवश्यकता होती है तथा जिन पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती है उन्हें छोड़ देती है।

3. ट्यूबुलर स्त्रवण- पुनरावशोषण के पश्चात् कभी-कभी नलिका की कोशिकाओं से कुछ उत्सर्जी पदार्थ स्रावित होते हैं जो फिल्ट्रेट में मिल जाते हैं। इसे ट्यूबुलर स्रवण कहते हैं।

इस फिल्ट्रेट को ब्लाडर-मूत्र कहते हैं। यह मूत्र-नलिका से होकर गुजरता है तथा मूत्राशय में जमा होता है एवं समय-समय पर मूत्रमार्ग के छिद्र द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।

मूत्र की बनावट- मूत्र का निर्माण वृक्क करता है। इसमें 96 जल, 2  यूरिया और 2  अन्य पदार्थ होते हैं। मूत्र का पिला रंग यूरोक्रोम के कारण होता है।

हिमोडायलिसिस- डायलिसिस मशीन से रक्त के शुद्धिकरण की प्रक्रिया हिमोडायलिसिस कहलाती है।

पादप में उत्सर्जन

पौधों में उत्सर्जन के लिए विशिष्ट अंग नहीं होते हैं। पौधों में कार्बन डाइऑक्साइड गैस और ऑक्सीजन का निष्कासन विसरण विधि द्वारा होता है।

महत्‍वपूर्ण तथ्‍य—

  • पौधे में उत्सर्जन पित्तयों के गिरने और छाल के विलगाव से होता है।
  • पौधों में पाए जानेवाले मुख्य उत्सर्जी पदार्थों में टैनिन, रेजिन एवं गोंद हैं।
  • प्रोटोजोआ अवशिष्ट पदार्थों का निष्कासन विसरण द्वारा करता है।
  • कृत्रिम वृक्क नाइट्रोजन अपशिष्ट को अपोहन द्वारा पृथक करता है।
  • मानव में नेफ्रॉन डायलिसिस थैली है।
  • नेफ्रॉन वृक्क की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है।
  • मानव का प्रमुख उत्सर्जी अंग वृक्क है।
  • सजीव जीवधारियों द्वारा अमोनिया, यूरिक अम्ल और यूरिया जैसे नाइट्रोजनी पदार्थ (कचरा) का उत्सर्जन होता है।
  • मनुष्य में वृक्क उत्सर्जन से संबंधित है।

जैवप्रकम, श्‍वसन, परिवहन एवं उत्‍सर्जन प्रश्‍नोत्तर—

प्रश्‍न 1. सजीव के मुख्‍य चार लक्षण लिखें।
उत्तर—(i) गति, (ii) पोषण, (iii) श्‍वसन तथा (iv) उत्‍सर्जन

प्रश्‍न 2. पित्त क्‍या हैमनुष्‍य के पाचन में इसका क्‍या महत्‍व है?
अथवापाचन में पित्त रस का महत्‍व लिखिए।
उत्तर—पित्त रस प्रत्‍यक्ष रूप से भोजन के पाचन में भाग नहीं लेता है, लेकिन इसमें विभिन्‍न प्रकार के रसायन होते हैं जो पाचन क्रिया में सहायता करते हैं

इस तरह पित्त रस निम्‍नलिखित महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है—
(i) यह अमाशय से आए भोजन के अम्‍लीय प्रभाव को क्षारीय बनाता है।
(ii) यह जीवाणुओं को मारता है तथा इसकी उपस्थिति में ही अग्‍नाशयी रस कार्य करता है।
(iii) यह आंत की दीवार को क्रमाकुचन के लिए उत्तेजित करता है।
(iv) यह वसा में घुलनशील विटामिनों के अवशोषण में सहायक होता है।
(v) यह कुछ विषैले पदार्थों;  जैसे—कोलेस्‍ट्रॉल और धातुओं के उत्‍सर्जन में सकायक होता है।

प्रश्‍न 3. मछलीमच्‍छरकेंचुआ और मनुष्‍य के मुख्‍य श्‍वसन अंगों के नाम लिखें।
उत्तर—

जीव का नामश्‍वसन अंग
(i)  मछली
(ii) मच्‍छर
(iii)  केंचुआ
(iv) मनुष्‍य
गिल्‍स
वायु नलिकायें
त्‍वचा
फेफड़ा

प्रश्‍न 5. हमारे आमाशय में अम्‍ल की भूमिका क्‍या है ?
उत्तर—हमारे आमाशय में अम्‍ल की भूमिका निम्‍नलिखित हैं –
(i) हमारे आमाशय में हाइड्रोक्‍लोरिक अम्‍ल जठर ग्रन्थियों से स्रावित होता है और भोजन में अम्‍लीय माध्‍यम प्रस्‍तुत करता है जिससे जठर रस का पेप्सिन नामक एन्‍जाइम अम्‍लीय माध्‍यम में कार्य कर सके।
(ii) यह भोजन में उपस्थित रोगाणुओं को अक्रियाशील एवं नष्‍ट करता है।
(iii) यह भोजन को शीघ्रता से नहीं पचने देता।

प्रश्‍न 6. श्‍वसन की परिभाषा दें।
उत्तर—शरीर के बाहर से ऑक्‍सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्‍यकता के अनुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग श्‍वसन कहलाता है।

इसे निम्‍नांकित समीकरण दारा समझा जा सकता है-

C6H12O6 + 6O2 → 6CO2 + 6H2O + 673 kcal.

प्रश्‍न 7. मनुष्‍य में कितने प्रकार के दाँत होते हैं ? उनके नाम तथा कार्य लिखें।
उत्तर—मनुष्‍य में दाँत चार प्रकार के होते हैं—कतर्नक या इंसाइजर, भेदक या कैनाइन, अग्रचवर्णक या प्रीमोलर तथा चवर्णक या मोलर।

कतर्नक को काटनेवाला दाँत कहते हैं। भेदक-चीरने या फाड़ने वाला दाँत होता है। अग्रचवर्णक एवं चवर्णक को चबाने एवं पीसने वाला दाँत कहा जाता है।

प्रश्‍न 8. दीर्घरोम क्‍या है? इसके कार्य लिखें।
उत्तर—मृदा से जल का अवशोषण जलीय पौधों में मूलरोमों के द्वारा होता है। मृदा से जल मूलत: विसरण की प्रक्रिया से मूलरोम की कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है। चूँकि मूलरोम की कोशिकाओं में कोशिका द्रव का परासरण दाब भूमि जल के दाब से अधिक होता है। अत: सांद्रता प्रवणता के अनुसार भूमि से मूलरोमों की कोशिकाओं की ओर जल का बहाव होता है।

प्रश्‍न 9. वाष्‍पोत्‍सर्जन एवं स्‍थानांतरण में अंतर लिखें।
उत्तर—पौधों के वायवीय भागों द्वारा वाष्‍प के रूप में जल के निष्‍कासन की क्रिया वाष्‍पोत्‍सर्जन कहलाती है। यह एक शारीरिक क्रिया है, एवं अलग-अलग पादपों में इस क्रिया से निष्‍कासित जल की मात्रा में भिन्‍नता होती है।

लेकिन स्‍थानांतरण में पौधों में जल, खनिज लवण एवं खाद्य-पदा‍र्थो का बहुत ऊँचाई तक संचलन होता है। इस स्‍थानांतरण की क्रिया में वाष्‍पोत्‍सर्जन की भूमिका होती है। यह फ्लोएम की चालनी नलिकाओं द्वारा होता है।

प्रश्‍न 10. लसीका क्‍या है? इसका कार्यो का वर्णन करें।
उत्तर—हमारे शरीर में रक्‍त लगातार ह्रदय की ओर जाता है और वापिस अंगों के पास जाता है। पर इसके अतिरिक्‍त एक और भी परिसंचरण तंत्र है जो बंद वाहिनियों का परिसंचरण कहलाता है। इसे लसीका तंत्र कहते हैं। लसीका या लिम्‍फ स्‍वच्‍छ तरल है जो रक्‍त कोशिकाओं से बाहर आ जाता है और सभी ऊतक गुहाओं के गीला रखता है। यह हीमोग्‍लोबिन की अनुपस्थिति के कारण रक्‍त की तरह लाल नहीं होता। इसका रंग‍ हल्‍का पीला होता है। यह ऊतकों की ओर से ह्रदय की ओर ही बहता है। यह किसी पम्‍प के द्वारा गति नहीं करता। इस तंत्र में अनेक वाहिनियाँ, ग्रं‍थियाँ और वाहिनिकाएँ होती हैं।

इनके कुछ प्रमुख कार्य हैं—
(i) हानिकारक जीवाणुओं के समाप्‍त कर रोगों से शरीर की रक्षा करती हैं।
(ii) शरीर पर लगे घावों को ठीक करने में सहायता करती हैं।
(iii) लिंफ नोड में छानने का कार्य करती है।
(iv) छोटी आंत में वसा का अवशोषण करती हैं।
(v) लिंफोसाइट्स का निर्माण करती हैं।

प्रश्‍न 11. ऑक्‍सीहोमोग्‍लोबिन क्‍या है ?
उत्तर—जब लाल रक्‍त कोशिकाओं में उपस्थित हीमोग्‍लोबिन फेफड़ा से ऑक्‍सीजन ग्रहण कर शरीर के विभिन्‍न भागों तक पहुँचाने का कार्य करता है, तो उसे ऑक्‍सीहीमोग्‍लोबीन कहा जाता है।

प्रश्‍न 12. प्रकाश संश्‍लेषण क्‍या है? इसका रासायनिक समीकरण लिखें।
अथवा, प्रकाश-संश्‍लेषण किसे कहते हैं ? इसका महत्व लिखिए।
उत्तर—प्रकाश-संश्‍लेषण हरे पौधे सूर्य के प्रकाश द्वारा क्‍लोरोफिल नामक वर्णक की उपस्थिति में CO2 और जल के द्वारा काबोहाइड्रेट (भोज्‍य पदार्थ) का निर्माण करते हैं और ऑक्‍सीजन गैस बाहर निकालते हैं। इस प्रक्रिया को प्रकाश-संश्‍लेषण कहते हैं।

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महत्व-
(i) इस प्रक्रिया के द्वारा भोजन का निमार्ण होता  है जिससे मनुष्‍य तथा अन्‍य जीव-जंतुओं का पोषण होता है।
(ii) इस प्रक्रिया में ऑक्‍सीजन का निमार्ण होता है, जो कि जीवन के लिए अत्‍यावश्‍यक है। जीव श्‍वसन द्वारा ऑक्‍सीजन ग्रहण करते हैं जिससे भोजन का ऑक्‍सीजन होकर शरीर के लिए ऊर्जा प्राप्‍त होती है।
(iii) इस क्रिया में CO2 ली जाती है तथा O2 निकाली जाती है जिससे पर्यावरण में O2 एवं CO2 की मात्रा संतुलित रहती है।
(iv) कार्बन डाइऑक्‍साइड के नियमन से प्रदूषण दूर होता है।
(v) प्रकाश-संश्‍लेषण के ही उत्‍पाद खनिज, तेल, पेट्रोलियम, कोयला आदि हैं, जो करोडों वर्ष पूर्व पौधों द्वारा संग्रहित किये गये थे।

प्रश्‍न 13. उत्‍सर्जन की परिभाषा दें। उत्‍सर्जी पदार्थ क्‍या हैं ?
अथवा, उत्‍सर्जन क्‍या है ? मानव में इसके दो प्रमुख अंगो के नाम लिखें।
उत्तर—शरीर में उपापचयी क्रियाओं द्वारा बने अनावश्‍यक अपशिष्‍ट पदार्थों का शरीर से बाहर निकालने की क्रिया को उत्‍सर्जन कहते हैं। जो पदार्थ बाहर निकलता है, उसे उत्‍सर्जी पदार्थ कहते हैं।

उत्‍सर्जन अंग-
वृक्‍क (kidney)- जो रक्‍त में द्रव्‍य के रूप में अपशिष्‍ट पदार्थो (liquid waste product) को मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है।
फेफड़ा (lungs)- जो रक्‍त में गैसीय अपशिष्‍ट पदार्थों (gaseous waste product) को शरीर से बाहर निकालता है।

प्रश्‍न 14. श्‍वसन और दहन में दो अंतर लिखें।
उत्तर—

श्‍वसनदहन
(i) शरीर के बाहर से ऑक्‍सीजन को ग्रहन करना तथा कोशिकीय आवश्‍यकता के अनुसार खाद्य स्रोत के विघटन में इसका उपयोग श्‍वसन कहलाता है।
(ii) इसमें ऊष्‍मा तथा प्रकाश की उत्‍पत्ति नहीं होती है।
(i) जब कोई पदार्थ ऑक्‍सीजन में जलता है तो दहन कहा जाता है।  
(ii) इसमें ऊष्‍मा तथा प्रकाश की उत्‍पत्ति होती है।

प्रश्‍न 15. रक्‍त के दो कार्य लिखें।
उत्तर—रक्‍त के कार्य- रक्‍त एक तरल संयोजी ऊतक है, क्‍योंकि वह अपने प्रवाह के दौरान शरीर के सभी ऊतकों का संयोजन करता है।

रक्‍त के तीन प्रमुख कार्य हैं— (a) पदार्थों का परिवहन, (b) संक्रमण से शरीर की सुरक्षा एवं (c) शरीर के तापमान का नियंत्रण करना।

प्रश्‍न 16. मानव में परिवहन तंत्र के घटक कौन–कौन से हैं ? दो घटकों के कार्य लिखें।
उत्तर—मानव में परिवहन तंत्र के प्रमुख घटक निम्‍नालिखित हैं—
(i) ह्रदय (ii) रूधिर, (iii) धमनियाँ (iv) शिरायें तथा (v) रूधिरप्‍लेट्स।

दो घटकों के कार्य निम्‍नलिखित हैं—
हृदय : हृदय रूधिर को शरीर के विभिन्‍न अंगों की सभी कोशिकाओं में वितरित करता है।
रूधिर : यह एक गहरे लाल रंग का संयोजी ऊतक है जिसमें तीन प्रकार की कोशिकाएँ स्‍वतंत्रतापूर्वक तैरती रहती हैं। भोजन, जल ऑक्‍सीजन, काबर्न डाइऑक्‍साइड तथा अन्‍य अनुपयोगी पदार्थो के अतिरिक हॉर्मोंस भी इसी के माध्‍यम से शरीर के विभिन्‍न भागों में रहते हैं।

प्रश्‍न 17. किण्‍वन क्‍या है?
उत्तर—वह रासायनिक क्रिया जिसमें सूक्ष्‍मजीव (यीस्‍ट) शर्करा का अपूर्ण विघटन करके CO2 तथा ऐल्‍कोहॉल, ऐसीटिक अम्‍ल इत्‍यादि का निर्माण होता है, किण्‍वन (fermentation) कहलाती है। इसमें कुछ ऊर्जा भी मुक्‍त होती हैं।

प्रश्‍न 18. स्‍वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में अंतर स्पष्‍ट करें।

स्‍वयंपोषी पोषणविषमपोषी पोषण
(i) इस प्रकार का पोषण हरे पौधों में पाया जाता है।
(ii) इसमें कार्बन डाइऑक्‍साइड तथा जल की परस्‍पर संयोजन क्रिया से कार्बनिक पदार्थो का निर्माण होता है।
(iii) इन्‍हें अपने भोजन के निर्माण के लिए अकार्बनिक पदार्थो की आवश्‍यकता होती है।
(iv) भोजन के निर्माण की क्रियाविधि प्रकाश-संश्‍लेषण में पर्णहरित तथा सूर्य के प्रकाश की आवश्‍यकता होती है।
(i) इस प्रकार का पोषण कीटों तथा जन्‍तुओं में पाया जाता है।
(ii) जंतु अपने भोजन के लिए पौधों पर तथा शाकाहारी प्राणियों पर निर्भर करते हैं।  
(iii) इसमें जंतुओं को अपने भोजन के लिए कार्बनिक पदार्थों की आवश्‍यकता होती है।
(iv) इसमें भोजन का निर्माण नहीं होता।

प्रश्‍न 19. पाचक एंजाइमों का क्‍या कार्य है? अथवाआमाशय में पाचक रस की क्‍या भूमिका है?
उत्तर—पाचक एंजाइम्‍स पाचक रसों में उपस्थित होते हैं जो पाचक ग्रंथियों से उत्‍पन्‍न होते हैं। प्रत्‍येक ग्रंथि का पाचक एंजाइम विशिष्‍ट प्रकार का होता है जिसका कार्य भी विशिष्‍ट हो सकता है। ये पाचक एंजाइम भोजन के विभिन्‍न पोषक तत्वों को जटिल रूप से सरल रूप में परिवर्तित करके घुलनशील बनाते हैं। उदाहरणार्थ लार में उपस्थित एमाइलेज (टायलिन) कार्बोहाइड्रेट को माल्‍टोज शर्करा में परिवर्तित कर देता है। इसी प्रकार से पेप्सिन प्रोटीन को पेप्‍टोन में परिवर्तित करता है। अग्‍नाशय अग्‍नाशयिक रस का स्रावण करता है जिसमें ट्रिप्सिन नामक एंजाइम होता है जो प्रो‍टीन का पाचन करता है।

प्रश्‍न 20. पादप में भोजन स्‍थानांतरण कैसे होता है ?
उत्तर—पादपों में जटिल संवहन ऊतक फलोएम द्वारा भोजन का स्‍थानांतरण होता है। भोजन तथा अन्‍य पदार्थो का स्‍थानांतरण संलग्‍न सखी कोशिका की सहायता से चालनी नालिका में ऊपरिमुखी दोनों दिशाओं में होता है। सुक्रोस के रूप में भोजन ATP से ऊर्जा लेकर स्‍थानांतरित होते हैं।

प्रश्‍न 21.पादप में जल और खनिज लवण का वहन कैसे होता है ?
उत्तर—पादपों के जड़ों में जाइलम एवं फ्लोएम ऊतक पाए जाते हैं। जाइलम से जल का वहन एवं फ्लोएम से खनिज-लवण का वहन होता है। जड़ के पास नमी मौजूद रहती है। इस नमी को ये दोनों ऊतकों के माध्‍यम से जडें सोखकर पौधे में परिवहन करती है।

प्रश्‍न 22. कोशिका के चार कोशिकांग का नाम लिखें।
उत्तर—(i) केन्‍द्रक, (ii) माइटोकॉण्ड्रिया, (iii) गॉल्‍जी उपकरण तथा (iv) तारक केन्‍द्र।

प्रश्‍न 23. परिसंचरण तंत्र से आप क्‍या समझते हैं ?
उत्तर—किसी जन्‍तु के शरीर में विभिन्‍न पदार्थों के परिवहन के लिए उत्तरदायी अंगतंत्र, परिसंचरण तंत्र कहलाते हैं। जैसे-मनुष्‍य में रूधिर परिसंचरण तंत्र।प्रश्‍न 24. विषमपोषी पोषण से आप क्‍या समझते हैं ?उत्तर—पोषण की वह विधि जिसमें कोई जीव अपना भोजन स्‍वयं न बना पाने के कारण अन्‍य जीवों पर आश्रित रहता है विषमपोषी पोषण कहलाती है। हरे पौधों एवं अन्‍य स्‍वपोषियों के अलावा प्राय: सभी सजीव विषमपोषी ही होते हैं।

प्रश्‍न 25पौधे में गैसों का आदान-प्रदान कैसे होता है?
उत्तर—पौधे में गैसों का अदान-प्रदान उनकी पत्तियों में उपस्थित रन्‍ध्र के द्वारा होता है। उनके CO2 एवं O2 का आदान-प्रदान विसरण-क्रिया द्वारा होता है, जिसकी दिशा पौधों की आवश्‍यकता एवं पर्यावरणीय अवस्‍थाओं पर निर्भर करती है।

प्रश्‍न 26. श्‍वसन और श्‍वासोच्‍छवास में क्‍या अन्‍तर है ?
उत्तर—

श्‍वसनश्‍वासोच्‍छावास
(i) यह क्रिया कोशिका के भीतर होती है।
(ii) इसमें एन्‍जाइमों की आवश्‍यकता होती है।
(i) यह क्रिया कोशिकाओं के बाहर होती है।
(ii) इसमें एन्‍जाइमों की आवश्‍यकता नहीं होती है।

प्रश्‍न 27. रक्‍त क्‍या है ? मनुष्‍य में श्‍वेत रक्‍त कणों की संख्‍या लिखें।
उत्तर—रक्‍त एक प्रकार का संयोजी उत्तक है। मनुष्‍य में श्‍वेत रक्‍त कोशिकाओं की संख्‍या 4000 से 10000 होती है। W.B.C. का जीवन काल 12-20 दिन होता है।

प्रश्‍न 28. रक्‍त क्‍या है ? मनुष्‍य में R.B.C.की संख्‍या लिखें।

उत्तर—रक्‍त एक प्रकार का तरल संयोजी उत्तक है जिसका मूल कार्य परिवहन है। मानव रक्‍त में R.B.C.की संख्‍या 45-50 लाख प्रति घन मिली० होता है। R.B.C. का जीवन काल 120 दिन होता है।

प्रश्‍न 29. मनुष्‍य में प्‍लेटलेट्स की संख्‍या लिखें।
उत्तर—मनुष्‍य में प्‍लेटलेट्स की संख्‍या 1.50 लाख से 4.50 लाख होती है। प्‍लेटलेट्स का जीवनकाल 3 से 5 दिन होता है।

प्रश्‍न 30. वाष्‍पोत्‍सर्जन क्रिया का पौधों के लिए क्‍या महत्व है?
अ‍थवापौधों में वाष्‍पोत्‍सर्जन क्‍या है ? इसके महत्वों को लिखें।
उत्तर—पौधों में पत्तियों के छिद्रों से जलवाष्‍प के रूप में जल के बाहर निकालने की क्रिया वाष्‍पोत्‍सर्जन कहलाती है।

महत्व-
(i) यह जल अवशोषण को नियमित करता है।
(ii) रसारोहण के प्रति उत्तरदायी होता है।
(iii) पौधों में तापमान संतुलित रखता है।

प्रश्‍न 31. अत्‍यधिक व्‍यायाम के दौरान खिलाड़ी के शरीर में क्रैंप होने लगता है। क्‍यों ?
उत्तर—अत्‍यधिक व्‍यायाम के दौरान खिलाड़ी के शरीर में ऑक्‍सीजन का अभाव हो जाता है और शरीर में अवायवीय श्‍वसन प्रारंभ होता है जिसमें पायरूवेट लैक्टिक अम्‍ल में परिवर्तित हो जाता है और खिलाडी के शरीर में क्रैंप इसी लैक्टिक अम्‍ल के कारण होता है।

प्रश्‍न 32. भोजन के पाचन में लार की क्‍या भूमिका है?
उत्तर—भोजन के पाचन में लार की प्रमुख भूमिका है—

  • यह मुख के खोल को साफ रखती है।
  • यह मुख खोल में चिकनाई पैदा करती है जिससे चबाते समय रगड़ कम होती है।
  • यह भोजन को चिकना एवं मुलायम बनाती है।
  • यह भोजन को पचाने में भी मदद करती है।
  • यह भोजन के स्‍वाद को बढ़ाती है।
  • लार में मौजूद टायलिन नामक एंजाइम स्‍टार्च को पचाकर शर्करा में बदल देता है।

प्रश्‍न 33. हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण क्यों अपर्याप्त है ?
उत्तर – हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण इस कारण अपर्याप्त हैं क्योंकि बहुकोशिकीय जीवों में सभी कोशिकाएँ वातावरण से सीधे सम्पर्क में नहीं होती हैं। अतः विसरण सभी कोशिकाओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता है।

प्रश्‍न 34. कोई वस्तु सजीव है, इसका निर्धारण करने के लिए हम किस मापदंड का उपयोग करेंगे ?
उत्तर – कोई वस्तु सजीव हैं, इसका निर्धारण करने के लिए हम सजीव को उसके अंदर उपस्थित जीवन से पहचानते हैं, जबकि जीवन को उसके कुछ विचित्र , विशिष्ट तथा मौलिक लक्षणों के आधार पर पहचानते हैं। सजीवों के कुछ महत्वपूर्ण लक्षण है जैसे – उनमें जीवन की उपस्थिति, पोषण की आवश्यकता, श्वसन क्रिया, जनन वृद्धि आदि।

प्रश्‍न 35. जीवन के अनुरक्षण के लिए आप किन प्रक्रमों को आवश्यक मानेंगे ?
उत्तर – जीवन के अनुरक्षण के लिए निम्नलिखित प्रक्रम आवश्यक मानेंगे:

(i) पोषण, (ii) श्वसन, (iii) परिवहन तथा (iv) उत्सर्जन।

प्रश्‍न 36. प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री पौधा कहाँ से प्राप्त करता है ?
उत्तर – प्रकाशसंश्लेषण के लिए पौधे कच्ची सामग्री वातावरण से प्राप्त करते हैं।
(i) क्लोरोफिल पादपों की हरी पत्तियों में वर्तमान रहता है।
(ii) प्रकाश सूर्य से प्राप्त करते हैं।
(iii) पौधे वातावरण से अपनी पत्तियों के रन्ध्रों द्वारा CO2 ग्रहण करते हैं।
(iv) पौधे अपनी जड़ों द्वारा मृदा में से जल का अवशोषण करते हैं और इस प्रकार जल का परिवहन जड़ से पत्तियों तक होता है।

प्रश्‍न 37. हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है ?
उत्तर—हमारे आमाशय में अम्ल भोजन के साथ आये हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है तथा माध्यम को अम्लीय बनाता है जो पेप्सिन एन्जाइम की क्रिया में सहायक होता है। यह भोजन को जल्‍दी से पचने नहीं देता है तथा भोजन को सड़ने नहीं देता है।

प्रश्‍न 38. पाचक एंजाइमों का क्या कार्य है ?
उत्तरहम जटिल पदार्थों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। पाचक एंजाइम इन जटिल पदार्थों को छोटे-छोटे सरल अणुओं में बदल देते हैं। यह इसलिए आवश्यक होता है कि सरल अणुओं को आँत द्वारा आसानी से अवशोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं पाचक एंजाइमों का हमारी पाचन क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

प्रश्‍न 39. पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुद्रांत्र को कैसे अभिकल्पित किया गया है ?
उत्तर—पचे हुए भोजन को आंत्र की भित्ति अवशोषित कर लेती है। क्षुद्रांत्र के आंतरिक आस्तर पर अंगुली जैसे अनेक प्रवर्ध होते हैं, जिन्हें दीर्घ रोम कहते हैं। ये अवशोषण के सतही क्षेत्रफल को बढ़ा देते हैं। इनमें रुधिर वाहिकाओं की अधिकता होती है जो भोजन को अवशोषित करके शरीर की प्रत्येक कोशिका तक पहुंचाने का कार्य करते हैं। यहां इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, नए ऊतकों का निर्माण करने तथा पुराने ऊतकों की मरम्मत के लिए किया जाता है।

प्रश्‍न 40. मनुष्यों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कैसे होता है ?
उत्तर—(i) ऑक्सीजन का परिवहन – हीमोग्लोबिन लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है जो फेफड़ों में पहुँची हुई वायु में से ऑक्सीजन लेकर उन उतकों तक ले जाते हैं जहाँ पर ऑक्सीजन की कमी होती है।

(ii) कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन — कार्बन डाइऑक्साइड जल में अधिक विलेय है और इसलिए इसका परिवहन हमारे रुधिर में विलेय अवस्था में होता है। यह नासाद्वारों से होकर बाहर निकल जाता है।

प्रश्‍न 41. मानव में वहन तंत्र के घटक कौन-से हैं ? इन घटकों के क्या कार्य हैं ?
उत्तर—मानव में वहन तंत्र के प्रमुख दो घटक हैं-रुधिर और लसीका।

(क) रुधिर के कार्य
(1) फेफड़ों से ऊतकों तक ऑक्सीजन का परिवहन करना।
(2) विभिन्न ऊतकों में कार्बन-डाइऑक्साइड को एकत्रित करके उसका फेफड़ों तक परिवहन करना।
(3) उपाचय में बने विषैले एवं हानिकारक पदार्थों को एकत्रित करके अहानिकारक बनाने के लिए यकृत में भेजना।
(4) विभिन्न प्रकार के उत्सर्जी पदार्थों का उत्सर्जन हेतु वृक्कों तक पहुंचाना।
(5) विभिन्न प्रकार के हॉर्मोनों का परिवहन करना।
(6) छोटी आंतों से परिजय भोज्य पदार्थों का अवशोषण भी रक्त प्लाज़्मा द्वारा होता है जिसे यकृत और विभिन्न ऊतकों में भेज दिया जाता है।
(7) शरीर के तापक्रम को उष्मा वितरण द्वारा नियंत्रित रखना।
(8) रुधिर के श्वेत रक्त कणिकाएं हानिकारक बैक्टीरियाओं, मृतकोशिकाओं तथा रोगाणुओं का भक्षण करके उन्हें नष्ट कर देता है।
(9) विभिन्न प्रकार के एंजाइमों का परिवहन करता है।
(10) फाइब्रिनोजिन नामक प्रोटीन रक्त में उपस्थित होती है जो रक्त का थक्का जमने में सहायक होते हैं।

(ख) लसीका के कार्य
(1) लसीका ऊतकों तक भोज्य पदार्थों का संवहन करती है।
(2) ऊतकों से उत्सर्जी पदार्थों को एकत्रित करती है।
(3) हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करके शरीर की रक्षा करती है।
(4) शरीर के घाव भरने में सहायक होती है।
(5) पचे वसा का अवशोषण करके शरीर के विभिन्न भागों तक ले जाती है।

प्रश्‍न 42. उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक क्या हैं ?
उत्तर – उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक जाइलम तथा फ्लोएम हैं।

प्रश्‍न 43. पादप में जल और खनिज लवण का वहन कैसे होता है ?
उत्तर—पादप में जल और खनिज लवण का वहन जाइलम ऊतक द्वारा होता है।

प्रश्‍न 44. पादप में भोजन का स्थानांतरण कैसे होता है ?
उत्तर—पादपों की पत्ति यां प्रकाश संश्लेषण क्रिया से अपना भोजन तैयार करती हैं और वह व हां से पादप के अन्य भागों में भेजा जाता है। प्रकाश संश्लेषण के विलेय उत्पादों का वहन स्थानांतरण कहलाता है। यह कार्य संवहन ऊतक के फ्लोएम नामक भाग के द्वारा किया जाता है।

प्रश्‍न 45. वृक्काणु (नेफ्रॉन) की रचना तथा क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर – वृक्काणु वृक्क की कार्यात्मक इकाई होते हैं। प्रत्येक वृक्काणु रुधिर को छानता है तथा मूत्र का निर्माण करता है। वृक्काणु के निम्नलिखित भाग होते हैं –

  1. एक बोमैन संपुट ग्लोमेरूलस के साथ।
  2. एक लम्बी नलिका।

वृक्काणु के कार्य निम्नवत हैं –

  1. रुधिर रिनल धमनी में बहुत उच्च दाब पर बहता है जिससे ग्लोमेरूलस की पतली दीवारों से रुधिर छनता रहता है।
  2. रुधिर कोशिकाएँ और प्रोटीन केशिकाओं में ही रहती हैं जबकि जल की अधिकांश मात्रा और घुले हुए खनिज बोमैन संपुट द्वारा छान दिये जाते हैं।
  3. इस निस्यंद में वर्ण्य पदार्थ जैसे यूरिया के साथ-साथ लाभदायक पदार्थ जैसे ग्लूकोज़ आदि उपस्थित रहते हैं। इनके अतिरिक्त जल की अतिरिक्त मात्रा जो शरीर के लिए उपयोगी नहीं होती वह भी होता है।
  4. जब यह निस्यंद नलिका में आता है तो लाभदायक पदार्थों; जैसे- ग्लूकोज़ अमीनो अम्ल, जल का पुनः नलिका में उपस्थित केशिकाओं द्वारा अवशोषण होता है।
  5. उन वर्ण्य पदार्थों का भी छनन इन केशिकाओं द्वारा होता है जो शेष रह जाते हैं।
  6. अन्त में निस्यद में केवल यूरिया, अन्य वर्ण्य पदार्थ तथा जल ही रह जाता है जिसे अब मूत्र कहा जाता है। यह संग्राहक में एकत्रित होता रहता है।

प्रश्‍न 46. उत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप किन विधियों का उपयोग करते हैं।
उत्तरउत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप निम्नलिखित तरीकों का उपयोग करते हैं :
(i) वे अतिरिक्त जल से वाष्पोत्सर्जन द्वारा छुटकारा पा सकते हैं।
(ii) पादपों में बहुत से ऊतक मृत कोशिकाओं के बने होते हैं। वे पत्तियों का क्षय करके छुटकारा पाते हैं।
(iii) कुछ उत्सर्जक उत्पाद गोंद के रूप में निष्क्रिय जाइलम में संचित रहते हैं।
(iv) उत्सर्जी पदार्थ टेनिन, रेजिन, गोंद छाल में भण्डारित रहते हैं जो छाल के हटने से खत्म हो जाते हैं।

प्रश्‍न 47. हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी के क्या परिणाम हो सकते हैं ?
उत्तर – हमारे शरीर में यदि हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होती है तो ऑक्सीजन की वहन क्षमता घट जाती है। इसलिए ऑक्सीजन की कमी से होनेवाले रोग होने लगते हैं। खासकर हीमोग्लोबिन की कमी के कारण साँस फूलने लगती है।

प्रश्‍न 48. मनुष्य में दोहरा परिसंचरण की व्याख्या कीजिए। यह क्यों आवश्यक है ?
उत्तर—मनुष्य के परिसंचरण तंत्र को दोहरा परिसंचरण इसलिए कहते हैं, क्योंकि प्रत्येक चक्र में रुधिर दो बार हृदय में जाता है। हृदय का दायाँ और बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकता है। चूंकि हमारे शरीर में उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जिसके लिए उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन जरूरी होता है। अतः शरीर: का तापक्रम बनाए रखने तथा निरन्तर ऊर्जा की पूर्ति के लिए यह परिसंचरण लाभदायक होता है।

प्रश्‍न 49. जाइलम तथा फ्लोएम में पदार्थों के वहन में क्या अंतर है?
1. जाइलम की कोशिकाएँ मृत होती है जबकि फ्लोएम की कोशिकाएँ जीवित होती है
2. जाइलम जल एवं घुलित खनिज का स्थानांतरण करता है जबकि फ्लोएम खाद्य पदार्थो का स्थानांतरण करता है
3. जाइलम में जल एवं घुलित खनिज लवणों का बहाव ऊपर की और होता है जबकि फ्लोएम में खाद्य पदार्थो का बहाव ऊपर एवं निचे दोनों तरफ परिवहन होता है।

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