Binayak Bhaiya

Chapter 9 जन-जन का चेहरा एक

जन-जन का चेहरा एक

जन-जन का चेहरा एक वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
निराला की तरह मुक्तिबोध कैसे कवि हैं?
(क) क्रांतिकारी
(ख) सामान्य
(ग) पलायनवादी
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 2.
भागवत : इतिहास और संस्कृति किस विषय से संबंधित है?
(क) इतिहास
(ख) समाजशास्त्र
(ग) ललित कला
(घ) पुरातत्व
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
इनमें से मुक्तिबोध की कौन–सी रचना है?
(क) हार–जीत
(ख) जन–जन का चेहरा एक
(ग) अधिनायक
(घ) पद
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 4.
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म कब हुआ था?
(क) 13 नवम्बर, 1917 ई.
(ख) 20 नवम्बर, 1917 ई.
(ग) 18 नवम्बर, 1930 ई.
(घ) 20 सितम्बर, 1927 ई.
उत्तर-
(क)

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
कष्ट दुख संताप की चेहरों पर पड़ी……… का रूप एक।
उत्तर-
झुर्रियों

प्रश्न 2.
जोश में यों ताकत से बाँधी हुई……… का एक लक्ष्य।
उत्तर-
मुट्ठियों

प्रश्न 3.
पृथ्वी के गोल चारों ओर से धरातल पर है……. का दल एक, एक पक्ष।
उत्तर-
जनता

प्रश्न 4.
जलता हुआ लाल कि भयानक……….. एक, उद्दीपित उसका विकराल सा इशारा एक।
उत्तर-
सितारा

प्रश्न 5.
एशिया की, यूरोप की, अमरीका की गलियों की……. एक।।
उत्तर-
धूप

प्रश्न 6.
चाहे जिस देश का प्रांत पर का हो जन–जन का……. एक।
उत्तर-
चेहरा

जन-जन का चेहरा एक अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
ज्वाला कहाँ से उठती है?
उत्तर-
जनता से।

प्रश्न 2.
मुक्तिबोध की कविता का नाम है।
उत्तर-
जन–जन का चेहरा।।

प्रश्न 3.
मुक्तिबोध ने सितारा किसे कहा है?
उत्तर-
जनता को।

प्रश्न 4.
आज जनता किससे आतंकित है?
उत्तर-
पूँजीवादी व्यवस्था से।.

जन-जन का चेहरा एक पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“जन–जन का चेहरा एक” से कवि का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
“जन–जन का चेहरा एक” कविता अपने में एक विशिष्ट एवं व्यापक अर्थ समेटे हुए हैं। कवि पीड़ित संघर्षशील जनता की एकरूपता तथा समान चिन्तनशीलता का वर्णन कर रहा है। कवि की संवेदना, विश्व के तमाम देशों में संघर्षरत जनता के प्रति मुखरित हो गई है, जो अपने मानवोचित अधिकारों के लिए कार्यरत हैं। एशिया, यूरोप, अमेरिका अथवा कोई भी अन्य महादेश या प्रदेश में निवास करनेवाले समस्त प्राणियों के शोषण तथा उत्पीड़न के प्रतिकार का स्वरूप एक जैसा है। उनमें एक अदृश्य एवं अप्रत्यक्ष एकता है।

में उनकी भाषा, संस्कृति एवं जीवन शैली भिन्न हो सकती है, किन्तु उन सभी के चेहरों में कोई अन्तर नहीं दिखता, अर्थात् उनके चेहरे पर हर्ष एवं विषाद, आशा तथा निराशा की प्रतिक्रिया, एक जैसी होती है। समस्याओं से जूझने (संघर्ष करने) का स्वरूप एवं पद्धति भी समान है।

कहने का तात्पर्य यह है कि यह जनता दुनिया के समस्त देशों में संघर्ष कर रही है अथवा इस प्रकार कहा जाए कि विश्व के समस्त देश, प्रान्त तथा नगर सभी स्थान के प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे एक समान हैं। उनकी मुखाकृति में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है। आशय स्पष्ट है विश्वबन्धुत्व एवं उत्पीडित जनता जो सतत् संघर्षरत है कवि उसी पीड़ा का वर्णन कर रहा है।

प्रश्न 2.
बँधी हुई मुट्ठियों का क्या लक्ष्य है?
उत्तर-
विश्व के तमाम देशों में संघर्षरत जनता की संकल्पशीलता ने उसकी मुट्ठियों को जोश में बाँध दिया है। कवि ऐसा अनुभव कर रहा है मानों समस्त जनता अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण ऊर्जा से लबरेज अपनी मुट्ठियों द्वारा संघर्षरत है। प्रायः देखा जाता है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध की मनोदशा में रहता है, अथवा किसी कार्य को सम्पादित करने की दृढ़ता तथा प्रतिबद्धता का भाव जागृत होता है तो उसकी मुट्ठियाँ बँध जाती हैं। उसकी भुजाओं में नवीन स्फूर्ति का संचार होता है। यहाँ पर “बँधी हुई मुट्ठियों” का तात्पर्य कार्य के प्रति दृढ़ संकल्पनाशीलता तथा अधीरता (बेताबी) से है। जैसा इन पंक्तियों में वर्णित है, “जोश में यों ताकत में बँधी हुई मुट्ठियों का लक्ष्य एक।”

प्रश्न 3.
कवि ने सितारे को भयानक क्यों कहा है? सितारे का इशारा किस ओर है?
उत्तर-
कवि ने अपने विचार को प्रकट करने के लिए काफी हद तक प्रवृति का भी सहारा लिया है। कवि विश्व के जन–जन की पीड़ा, शोषण तथा अन्य समस्याओं का वर्णन करने के क्रम में अनेकों दृष्टान्तों का सहारा लेता है। इस क्रम में वह आकाश में भयानक सितारे की ओर इशारा करता है। वह सितारा जलता हुआ है और उसका रंग लाल है। प्रायः कोई वस्तु आग की ज्वाला में जलकर लाल हो जाती है। लाल रंग हिंसा, खून तथा प्रतिशोध का परिचायक है। इसके साथ ही यह उत्पीड़न, दमन, अशांति एवं निरंकुश पाशविकता की ओर भी संकेत करता है।

“जलता हुआ लाल कि भयानक सितारा एक उद्दीपित उसका विकराल से इशारा एक।”. उपरोक्त पंक्तियों में एक लाल तथा भयंकर सितारा द्वारा विकराल सा इशारा करने की कवि की कल्पना है। आकाश में एक लाल रंग का सितारा प्रायः दृष्टिगोचर होता है, “मंगल”। संभवतः कवि का संकेत उसी ओर हो, क्योंकि उस तारा की प्रकृति भी गर्म है। कवि ने जलता हुआ भयानक, सितारा जो लाल है–इस अभिव्यक्ति द्वारा सांकेतिक भाषा में उत्पीड़न, दमन एवं निरंकुश शोषकों द्वारा जन–जन के कष्टों का वर्णन किया है। इस प्रकार कवि विश्व की वर्तमान विकराल दानवी प्रकृति से संवेदनशील (द्रवित) हो गया प्रतीत होता है।

प्रश्न 4.
नदियों की वेदना का क्या कारण है?
उत्तर-
नदियों की वेगावती धारा में जिन्दगी की धारा के बहाव, कवि के अन्त:मन की वेदना को प्रतिबिम्बित करता है। कवि को उनके कल–कल करते प्रवाह में वेदना की अनुभूति होती है। गंगा, इरावती, नील, आमेजन नदियों की धारा मानव–मन की वेदना को प्रकट करती है, जो अपने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। कजनता को पीड़ा तथा संघर्ष को जनता से जोड़ते हुए बहती हुई नदियों में वेदना के गीत कवि को सुनाई पड़ते हैं।

प्रश्न 5.
अर्थ स्पष्ट करें :
(क) आशामयी लाल–लाल किरणों से अंधकार,
चीरत सा मित्र का स्वर्ग एक;
जन–जन का मित्र एक

(ख) एशिया के, यूरोप के, अमरिका के
भिन्न–भिन्न वास स्थान; भौगोलिक,
ऐतिहासिक बंधनों के बावजूद,
सभी ओर हिन्दुस्तान,
सभी ओर हिन्दुस्तान।
उत्तर-
(क) आशा से परिपूर्ण लाल–लाल किरणों से अंधकार को चीरता हुआ मित्र का एक स्वर्ग है। वह जन–जन का मित्र है। कवि के कहने का अर्थ यह है कि सूर्य को लाल किरणें अंधकार का नाश करते हुए मित्र के स्वर्ग के समान हैं। समस्त मानव–समुदाय का वह मित्र है।

विशेष अर्थ यह प्रतीत होता है कि विश्व के तमाम देशों में संघर्षरत जनता जो अपने अधिकारों की प्राप्ति, न्याय, शान्ति एवं बन्धुत्व के लिए प्रयत्नशील है, उसे आशा की मनोहारी किरणें स्वर्ग के आनन्द के समान दृष्टिगोचर हो रही हैं।।

(ख) भौगोलिक तथा ऐतिहासिक बन्धनों में बंधे रहने के बावजूद एशिया, यूरोप, अमरीका आदि जो विभिन्न स्थानों से अवस्थित हैं, केवल हिन्दुस्तान के ही शोहरत है। इसका आशय यह है कि एशिया, यूरोप, अमेरीका आदि विभिन्न महादेशों में भारत की गौरवशाली तथा बहुरंगी परंपरा की धूम है, सर्वत्र भारतवर्ष (हिन्दुस्तान) की सराहना है। भारत विश्वबन्धुत्व, मानवता, सौहार्द, करुणा, सच्चरित्रता आदि मानवोचित गुणों तथा संस्कारों की प्रणेता है। अतः सम्पूर्ण विश्व की जगह (निवासी) आशा तथा दृढ़ विश्वास के साथ इसकी ओर निहार रहे हैं।

प्रश्न 6.
“दानव दुरात्मा” से क्या अर्थ है?
उत्तर-
पूरे विश्व की स्थिति अत्यन्त भयावह, दारुण तथा अराजक हो गई है। दानव और दुरात्मा का अर्थ है–जो अमानवीय कृत्यों में संलग्न रहते हैं, जिनका आचरण पाशविक होता है उन्हें दानव कहा जाता है। जो दुष्ट प्रकृति के होते हैं तथा दुराचारी प्रवृत्ति के होते हैं उन्हें ‘दुरात्मा’ कहते हैं। वस्तुत: दोनों में कोई भेद नहीं है, एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। ये सर्वत्र पाए जाते हैं।

प्रश्न 7.
ज्वाला कहाँ से उठती है? कवि ने इसे “अतिक्रद्ध” क्यों कहा है?
उत्तर-
ज्वाला का उद्गम स्थान मस्तक तथा हृदय के अन्तर की ऊष्मा है। इसका अर्थ यह होता है कि जब मस्तिष्क में कोई कार्य–योजना बनती है तथा हृदय की गहराई में उसके प्रति तीव्र उत्कंठा की भावना निर्मित होती है। वह एक प्रज्जवलित ज्वाला का रूप धारण कर लेती है। “अतिक्रुद्ध” का अर्थ होता है अत्यन्त कुपित मुद्रा में। आक्रोश की अभिव्यक्ति कुछ इसी प्रकार होती है। अत्याचार, शोषण आदि के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान हृदय की अतिक्रुद्ध ज्वाला की मन:स्थिति में होता है।

प्रश्न 8.
समूची दुनिया में जन–जन का युद्ध क्यों चल रहा है?
उत्तर-
सम्पूर्ण विश्व में जन–जन का युद्ध जन–मुक्ति के लिए चल रहा है। शोषक, खूनी चोर तथा अन्य अराजक तत्वों द्वारा सर्वत्र व्याप्त असन्तोष तथा आक्रोश की परिणति जन–जन के युद्ध अर्थात् जनता द्वारा छेड़े गए संघर्ष के रूप में हो रहा है।

प्रश्न 9.
कविता का केन्द्रीय विषय क्या है?
उत्तर-
कविता का केन्द्रीय विषय पीड़ित और संघर्षशील जनता है। वह शोषण, उत्पीड़न तथा अनाचार के विरुद्ध संघर्षरत है। अपने मानवोचित अधिकारों तथा दमन की दानवी क्रूरता के विरुद्ध यह उसका युद्ध का उद्घोष है। यह किसी एक देश की जनता नहीं है, दुनिया के तमाम देशों में संघर्षरत जन–समूह है जो अपने संघर्षपूर्ण प्रयास से न्याय, शान्ति, सुरक्षा, बन्धुत्व आदि की दिशा में प्रयासरत है। सम्पूर्ण विश्व की इस जनता (जन–जन) में अपूर्व एकता तथा एकरूपता है।

प्रश्न 10.
प्यार का इशारा और क्रोध का दुधारा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
गंगा, इरावती, नील, आमेजन आदि नदियाँ अपने अन्तर में समेटे हुए अपार जलराशि निरन्तर प्रवाहित हो रही है। उनमें वेग है, शक्ति है तथा अपनी जीव धारा के प्रति एक बेचैनी है। प्यार भी है, क्रोध भी है। प्यार एवं आक्रोश का अपूर्व संगम है। उनमें एक करूणाभरी ममता है तो अत्याचार, शोषण एवं पाशविकता के विरुद्ध दोधारी आक्रामकता भी है। प्यार का इशारा तथा क्रोध की दुधारा का तात्पर्य यही है।.

प्रश्न 11.
पृथ्वी के प्रसार को किन लोगों ने अपनी सेनाओं से गिरफ्तार कर रखा है?
उत्तर-
पृथ्वी के प्रसार को दुराचारियों तथा दानवी प्रकृति वाले लोगों ने अपनी सेनाओं द्वारा गिरफ्तार किया है। उन्होंने अपने काले कारनामों द्वारा प्रताड़ित किया है। उनके दुष्कर्मों तथा अनैतिक कृत्यों से पृथ्वी प्रताड़ित हुई है। इस मानवता के शत्रुओं ने पृथ्वी को गम्भीर यंत्रणा दी है।

जन-जन का चेहरा एक भाषा की बात

प्रश्न 1.
प्रस्तुत कविता के संदर्भ में मुक्तिबोध की काव्यभाषा की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
आधुनिक हिन्दी साहित्य में गजानन मुक्तिबोध जो एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में विख्यात है। इनकी काव्य प्रतिभा से समस्त हिन्दी जगत अवगत है। प्रस्तुत कविता में ‘जन–जन का चेहरा एक’ में कवि की भाषा अत्यन्त ही सहज सरल और प्रवाहमयी है। हिन्दी के सरल एवं ठेठ बहुप्रचलित शब्दों का प्रयोग कर कवि ने अपने उदार विचारों को प्रकट किया है। मुक्तिबोध की काव्य भाषा में ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है जिनके द्वारा भावार्थ समझने में कठिनाई नहीं होती। काव्यभाषा के जिन–जिन गुणों की जरूरत होती है उनका समुचित निर्वहन मुक्तिबोध जी ने अपनी कविताओं में किया है।

मुक्तिबोध भारतीय लोक संस्कृति से पूर्णत: वाकिफ है। इसी कारण उन्होंने पूरे देश की समन्वय संस्कृति की रेशम के लिए अपनी कविता को नया स्वर दिया। इनकी कविताओं इतनी सहज संप्रेषणीनता है कि सभी लोगों को शीघ्र ही ग्राह्य हो जाती है। भाव पक्ष के वर्णन में कवि ने अत्यन्त ही सुगमता से काम लिया है। पूरे देश के इतिहास और संस्कृति की विशद व्याख्या इनकी कविताओं में हुई है। कवि शब्दों के चयन में अत्यन्त ही अपनी कुशलता का परिचय दिया है। वाक्य विन्यास भी सुबोध है। कविता में प्रवाह है। कहीं भी अवरोध नहीं मिलता।

भावाभिव्यक्ति में कवि की संवेदनशीलता और बौद्धिकता स्पष्ट दिखायी पड़ती है। अपने ज्ञान अनुभव और संवेदन के काव्य जगत में अपनी सृजनशीलता के द्वारा बहुमूल्य कृतियाँ मुक्तिबोध अंग्रेजी के प्रकांड विद्वानों में से थे। उनका अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त क्षेत्र अत्यन्त ही व्यापक था। उन्होंने अपनी कविताओं को चिन्तन एवं बौद्धिक चेतना से पूरित किया है। राजनीतिक चेतना संपन्न. होने के कारण उनकी कविताओं में राजनीति, दर्शन, मानवीयता और राष्ट्रीयता की भी झलक साफ दिखायी पड़ती है। कवि अपनी बात को अत्यन्त ही सहजता से पाठकों तक पहुंचाने में सफल हुआ है।

मार्क्सवादी चेतना से संपन्न होकर कवि ने समस्याओं को अपनी कविता का विषय बनाया है। पूरे समाज के निर्माण विकास बौद्धिक–आत्मिक क्षमताओं में वृद्धि तथा मूल्यों के बचाव की प्रक्रिया का अनुसंधान किया है। अपनी प्रभावपूर्ण कल्पना शक्ति द्वारा काव्य रचना को कवि ने चेतनामयी आभा से आलोकित किया है। इस प्रकार मुक्तिबोध की कविताएँ अपनी भाषिक विशेषताओं से पाठक को नयी दिशा ग्रहण करने में सहायता करती है।

कथ्य और संप्रेषसीमता की दृष्टि से भी कविता सुगम और सरल है। इस कविता से कवि. की वैश्विक दृष्टि और सार्वभौम दिखायी पड़ती है। कवि वर्तमान परिवेश से विकल व्यक्ति है कवि का चिन्तन प्रवाह स्पष्ट रूप से कविता में साफ–सपाफ झलकता है। कवि जनता के मानवोचित’ अधिकारों के लिए संघर्षरत है। वह दुनिया के तमाम देशों में संघर्षरत और कर्मरत जनता के कल्याण के लिए चिन्तित हैं।

कवि अपने कर्म श्रम से न्याय, शान्ति, बन्धुत्व की दिशा में प्रयासरत है। कवि की दृष्टि अत्यन्त ही व्यापक है। उसकी संकल्प शक्ति सारे जग के श्रमिकों, मेहनतकश जन की संकल्प शक्ति है। वह अपनी कविताओं द्वारा उनमें प्रेरणा और उत्साह वर्द्धन क काम करना चाहता है। वह सारे जन को एकता के सूत्र में बांधना चाहता है। इस प्रकार भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों दृष्टियों से कवि की कविता लोकहितकारी और चिन्तन धारा से युक्त है।

प्रश्न 2.
‘संताप’ और ‘संतोष’ का सन्धि–विच्छेद करें।
उत्तर-

  • संताप–सम् + ताप = संताप।
  • संतोष–सम् + तोष = संतोष।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों से विशेषण चनें-
गहरी काली छायाएँ पसारकर
खड़े हुए शत्रु का काल से पहाड़ पर
काला–काला दुर्ग एक
जन शोषक शत्रु एक।
उत्तर-
विशेषण–गहरी, काली, काले से, काला–काला, शोषक।

प्रश्न 4.
उत्पत्ति की दृष्टि से निम्नलिखित शब्दों की प्रकृति बताएं
उत्तर-

  • कष्ट – तत्सम्
  • संताप – तत्सम
  • भयानक – तत्सम
  • विकराल – तत्सम
  • इशारा – विदेशज
  • प्रसार – तत्सम
  • गिरफ्तार – विदेशज
  • शोषक – तत्सम
  • आशामयी – तत्सम
  • अंधकार – तत्सम
  • कन्हैया – तद्भव
  • मस्ती – विदेशज
  • खड्ग – तत्सम
  • सेहरा – विदेशज

प्रश्न 5.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची लिखें
धूप, गली, दानव, हिये, ज्वाला।
उत्तर-

  • धूप–मरीची, प्रकाश, प्रभाकर।
  • गली–गलियारा, पंथ, रास्ता।
  • दानव–असुर, दानव, दैत्य, राक्षस।
  • हिय–हृदय, जिगर।
  • ज्वाला–अग्नि, आग।

जन–जन का चेहरा एक कवि परिचय गजानन माधव मुक्तिबोध (1917–1964)

जीवन–परिचय–
नई कविता के प्रसिद्ध प्रयोगवादी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर, सन् 1917 ई. को मध्यप्रदेश राज्य में ग्वालियर जनपद में हुआ था। उनके पिता का नाम माधवराज मुक्तिबोध तथा माता का नाम पार्वतीबाई था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन, विदिशा, अमझरा, सरदारपुर आदि स्थानों पर हुई। उन्होंने सन् 1931 में उज्जैन के माधव दॉलेज से ग्वालियर बोर्ड की मिडिल परीक्षा, सन् 1935 में माधव कालेज से इंटरमीडिएट, सन् 1938 में इंदौर के होल्कर कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने सन् 1953 में नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की।

श्री मुक्तिबोध ने 20 वर्ष की छोटी उम्र से नौकरी शुरू की। अनेक स्थानों पर नौकरी करते हुए सन् 1948 में नागपुर के प्रकाश तथा सूचना विभाग में पत्रकार के रूप में काम किया। उन्होंने सन् 1954–56 तक रेडियो के प्रादेशिक सूचना विभाग में काम किया। उन्होंने सन् 1956 में नागपुर से निकलने वाले पत्र ‘नया खून’ का संपादन किया। सन् 1958 से वे दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगाँव में प्राध्यापक पद पर कार्य करते रहे। उनकी मृत्यु 11 सितम्बर, सन् 1964 को हुई।

रचनाएँ–गजानन माधव मुक्तिबोध ने ‘तार सप्तक’ के कवि के रूप में अपनी रचनाओं के साथ साहित्य–सेवा की शुरुआत की। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं

कविता संग्रह–चाँ का मुँह टेढ़ा है, भूरी–भूरी खाक धूल।

काव्यगत विशेषताएँ–गजानन माधव मुक्तिबोध हिन्दी की नई कविता के प्रमुख कवि, चिन्तक आलोचक और कथाकार हैं। उनका उदय प्रयोगवाद के एक कवि के रूप में हुआ। वे अपनी प्रकृति और संवेदना से ही अथक सत्यान्वेषी, ज्ञान पिपासु तथा साहसी खोजी थे। उनका कवि–व्यक्तित्व बड़ा जटिल रहा है। ज्ञान और संवेदना से युगीन प्रभावों को ग्रहणकर प्रौढ़ मानसिक प्रतिक्रियाओं के कारण उनकी रचनाएँ अत्यन्त सशक्त हैं।

उन्होंने ज्यादातर लम्बी कविताएँ लिखी हैं, जिनमें सामयिक समाज के अन्तर्द्वन्द्वों तथा इससे उत्पन्न भय, आक्रोश, विद्रोह व संघर्ष भावना का सशक्त चित्रण मिलता है। उनकी कविताओं में सम्पूर्ण परिवेश के साथ स्वयं को बदलने की प्रक्रिया का चित्रण भी मिलता है। उनकी कविता आधुनिक जागरूक व्यक्ति के आत्मसंघर्ष की कविता है।

जन-जन का चेहरा एक कविता का सारांश

“जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता में यशस्वी कवि मुक्तिबोध ने अत्यन्त सशक्त एवं रोचक ढंग से विश्व की विभिन्न जातियों एवं संस्कृतियों के बीच एकरूपता दर्शाते हुए प्रभावोत्पादक मनोवैज्ञानिक संश्लेषण किया है। कवि के अनुसार संसार के प्रत्येक महादेश, प्रदेश तथा नगर के लोगों में एक सी प्रवृति पायी जाती है।

विद्वान कवि की दृष्टि में प्रकृति समान रूप से अपनी ऊर्जा प्रकाश एवं अन्य सुविधाएँ समस्त प्राणियों को वे चाहे जहाँ निवास करते हों, उनकी भाषा एवं संस्कृति जो भी हो, बिना भेदभाव किए प्रदान कर रही है। कवि की संवेदना प्रस्तुत कविता में स्पष्ट मुखरित होती है।

ऐसा प्रतीत होता है कि कवि शोषण तथा उत्पीड़न का शिकार जनता द्वारा अपने अधिकारों के संघर्ष का वर्णन कर रहा है। यह समस्त संसार में रहने वाली जनता (जन–जन) के शोषण के खिलाफ संघर्ष को रेखांकित करता है। इसलिए कवि उनके चेहरे की झुर्रियों को एक समान पाता है। कवि प्रकृति के माध्यम से उनके चेहरे की झुर्रियों की तुलना गलियों में फैली हुई धूप (जो सर्वत्र एक समान है) से करता है।

अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता की बँधी हुई मुट्ठियों में दृढ़–संकल्प की अनुभूति कवि को हो रही है। गोलाकार पुरुषों के चतुर्दिक जन–समुदाय का एक दल है। आकाश में एक भयानक सितारा चमक रहा है और उसका रंग लाल है, लाल रंग हिंसा, हत्या तथा प्रतिरोध की ओर संकेत कर रहा है, जो दमन, अशान्ति एवं निरं श पाशविकता का प्रतीक है। सारा संसार इससे त्रस्त है। यह दानवीय कुकृत्यों की अन्तहीन गाथा है।

नदियों की तीव्र धारा में जनता (जन–जन) की जीवन–धारा का बहाव कवि के अर्न्तमन की वेदना के रूप में प्रकट हुआ है। जल का अविरल कल–कल करता प्रवाह वेदना के गीत जैसे प्रतीत होते हैं प्रकारान्तर में यह मानव मन की व्यथा–कथा जिसे इस सांकेतिक शैली में व्यक्त किया गया है।

जनता अनेक प्रकार के अत्याचार, अन्याय तथा अनाचार से प्रताड़ित हो रही है। मानवता के शत्रु जनशोषक दुर्जन लोग काली–काली छाया के समान अपना प्रसार कर रहे हैं, अपने कुकृत्यों तथा अत्याचारों का काला दुर्ग (किला) खड़ा कर रहे हैं।

गहरी काली छाया के समान दुर्जन लोग अनेक प्रकार के अनाचार तथा अत्याचार कर रहे हैं, उनके कुकृत्यों की काली छाया फैल रही है, ऐसा प्रतीत होता है कि मानवता के शत्रु इन दानवों द्वारा अनैतिक एवं अमानवीय कारनामों का काला दुर्ग काले पहाड़ पर अपनी काली छाया प्रसार कर रहा है। एक ओर जल शोषण शत्रु खड़ा है, दूसरी ओर आशा की उल्लासमयी लाल ज्योति से अंधकार का विनाश करते हुए स्वर्ग के समान मित्र का घर है।।

सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान एवं चेतना की ज्योति में एकरूपता है। संसार का कण–कण उसके तीव्र प्रकाश से प्रकाशित है। उसके अन्तर से प्रस्फुटित क्रान्ति की ज्वाला अर्थात् प्रेरणा सर्वव्यापी तथा उसका रूप भी एक जेसा है। सत्य का उज्ज्वल प्रकाश जन–जन के हृदय से व्याप्त है तथा अभिवन साहस का संसार एक समान हो रहा है क्योंकि अंधकार को चीरता हुआ मित्र का स्वर्ग है।

प्रकाश की शुभ्र ज्योति का रूप एक है। वह सभी स्थान पर एक समान अपनी रोशनी बिखेरता हे। क्रांति से उत्पन्न ऊर्जा एवं शक्ति भी सर्वत्र एक समान परिलक्षित होती है। सत्य का दिव्य प्रकाश भी समान रूप से सबको लाभान्वित करता है। विश्व के असंख्य लोगों की भिन्न–भिन्न संस्कृतियों वाले विभिन्न महादेशों की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक विशिष्टताओं के नापजूद, वे भारत वर्ष की जीवन शैली से प्रभावित हैं क्योंकि यहाँ विश्वबन्धुत्व भूमि है जहाँ कृष्ण की बाँसुरी बजी थी तथा कृष्ण ने गायें चराई थीं।

पूरे विश्व में दानव एवं दुरात्मा एकजुट हो गए हैं। दोनों की कार्य शैली एक है। शोषक, खूनी तथा चोर सभी का लक्ष्य एक ही है। इन तत्वों के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध की शैली भी एक है।

सभी जनता के समूह (जन–जन) के मस्तिष्क का चिन्तन तथा हृदय के अन्दर की प्रबलता में भी एकरूपता है। उनके हृदय की प्रबल ज्वाला की प्रखरता भी एक समान है। क्रांति का सृजन तथा विजय का देश के निवासी का सेहरा एक है। संसार के किसी नगर, प्रान्त तथा देश के निवासी का चेहरा एक है तथा वे एक ही लक्ष्य के लिए संघर्षरत हैं।

सारांश यह है कि संसार में अनेकों प्रकार के अनाचार, शोषण तथा दमन समान रूप से अनवरत जारी है। उसी प्रकार जनहित के अच्छे कार्य भी समान रूप से हो रहे हैं। सभी की आत्मा एक है। उनके हृदय का अन्तःस्थल एक है। इसीलिए कवि का कथन है

संग्राम का घोष एक,
जीवन संतोष एक।
क्रांति का निर्माण को, विजय का सेहरा एक
चाहे जिस देश, प्रांत, पुर का हो।
जन–जन का चेहरा एक।

कविता का भावार्थ’

चाहे जिस देश प्रान्त पुर का हो
जन–जन का चेहरा एक।
एशिया की, यूरोप की, अमरीका की
गलियों की धूप एक।
कष्ट–दुख संताप की,
चेहरों पर पड़ी हुई झुर्रियों का रूप एक!
जोश में यों ताकत से बंधी हुई
मुट्ठियों का एक लक्ष्य !

व्याख्या–प्रस्तुत व्याख्येय काव्यांश हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन एक चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचनाकार आधुनिक हिन्दी काव्य–शैली के यशस्वी ‘कवि’ मुक्तिबोध हैं। इन पंक्तियों में विश्व के विभिन्न देशों में एकरूपता एवं समानता दर्शायी गई है। कोई व्यक्ति किसी भी देश या प्रान्त का निवासी हो–उसकी मातृभूमि, एशिया, यूरोप, अमेरिका अथवा कोई अन्य महादेश हो। उसकी भाषा, संस्कृति एवं जीवन शैली भिन्न हो सकती है या होती है किन्तु उन सभी के चेहरों में कोई अन्तर नहीं रहता अर्थात् सबमें समानता पायी जाती है।

पूरे विश्व के हर क्षेत्र–”राजपथ हो या गलियाँ”–सूर्य अपनी रश्मियाँ समान रूप से उन सभी स्थानों पर बिखेर रहा है। उनके कष्टों, अभावों तथा यातनाओं से पीड़ित उन समस्त (सभी देशों) प्राणियों के चेहरों पर विषाद की रेखाएँ झुर्रियों के रूप में एक समान है। अपने. लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कर्त्तव्य पालन हेतु जोश में उनकी मुट्ठियाँ एक ही समान बँधी हुई है। यह अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु दृढ़ संकल्प का परिचायक है।।

इस प्रकार इन पंक्तियों में कवि की विश्वबन्धुत्व के प्रति संवेदनशीलता को स्पष्ट झलक मिलती है। कवि की भावुकता उपरोक्त पंक्तियों में मुखरित ही उठती है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपने कविता के माध्यम से विश्व में व्याप्त हिंसा, घृणा, मतभेद तथा विवाद का उन्मूलन चाहता है। तभी तो उसकी वाणी मुखरित हो जाती है, “चाहे जिस देश, प्रान्त, पुर का हो, जन–जन का चेहरा एक” है।

पृथ्वी के गोल चारों ओर के धरातल पर
है जनता का दल एक, एक पक्ष
जलता हुआ लाल कि भयानक सितारा एक,
उद्दीपित उसका विकराल सा इशारा एक।

व्याख्या–प्रस्तुत व्याख्येय पद्यांश हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से ली गई है। इसके रचयिता कवि श्रेष्ठ मुक्तिबोध हैं।

सूर्य की लालिमा तथा प्रकाश की किरणें सब पर समान रूप से बिखेरते हुए एक संकेत देती है। उसका यह संकेत अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार कवि का कहने का आशय यह है कि पृथ्वी पर निवास करने वाले विश्व के समस्त प्राणी समान हैं, उनकी भावनाएँ समान है तथा उनकी समस्याएँ भी समान हैं, उद्दीप्त सूर्य की लाल प्रकाश की ओर संकेत कर रहा है।

गंगा में, इरावती में, मिनाम में
अपार अकुलाती हुई,
नील नदी, आमेजन, मिसौरी में वेदना से गाती हुई,
बहती–बहाती हुई जिन्दगी की धारा एक
प्यार का इशारा एक, क्रोध का दुधारा एक।

व्याख्या–प्रस्तुत सारगर्भित पद्यांश हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसकी रचना लोकप्रिय कवि मुक्तिबोध की सशक्त लेखनी द्वारा की गई है तथा नदियों के तट पर निवास करने वाले जन–समुदाय को एक सदृश जीवन धारा का वर्णन है।

गंगा, इरावती, मिनाम, नील, आमेजन, मिसौरी आदि नदियाँ अपने अन्तर में समेटे हुए विशाल जलराशि के साथ निरन्तर प्रवाहित हो रही है। उनमें वेग है, शक्ति है तथा अपनी जीवन धारा के प्रति छपपटाहट है प्यार एवं क्रोध का अपूर्व संगम है। उनके प्रवाह में की वेगवती धारा में जीवन का वेदनापूर्ण संगीत है। वे निरंतर एक सारगर्भित संदेश प्रदान कर रही है।

इस प्रकार उपरोक्त पंक्तियों में कवि के कहने का आशय यह है कि विभिन्न देशों में प्रवाहित होनेवाली नदियों में समानता है, उनके जल में कोई मौलिक अंतर नहीं है। उनका वेग, प्रकृति एवं प्रवृत्ति में भी एकरूपता है। मानव जीवन को उन्हें एक अभिनव संदेश प्राप्त होता है। उनका निरंतर प्रवाह को अपने कर्त्तव्य–पथ पर आगे बढ़ने की सतत् प्रेरणा देता है, जीवन को संयमित होने का संकेत देता है। प्यार एवं क्रोध को सहज अभिव्यक्ति का संदेश भी इन नदियों द्वारा होता है। दोनों प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित है। मानव जीवन पर इनका गहरा प्रभाव पड़ता है। नदियों के समान ही समस्त विश्व के जन–समुदाय की जीवन धारा भी एक समान है।

पृथ्वी का प्रसार
अपनी सेनाओं से किये हुए गिरफ्तार,
गहरी काली छायाएं पसारकर,
खड़े हुए शत्रु का काले से पहाड़ पर
काला–काला दुर्ग एक,
जन शोषक शत्रु एक।
आशामयी लाल–लाल किरणों से अंधकार
चीरता सा मित्र का स्वर्ग एक;
जन–जन का मित्र एक।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता कवि ‘मुक्तिबोध’ हैं। विद्वान कवि ने विश्व में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता तथा दमन का सशक्त चित्रण इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया है।

इस संसार में दुर्जन लोग अनेक प्रकार के अनाचार कर रहे हैं। काली–काली छाया के समान सम्पूर्ण पृथ्वी पर इनका प्रसार हो रहा है। यह जनशोषक मानवता के शत्रु हैं, इन्होंने अमानवीय कार्यों तथा शोषण का किला खड़ा कर दिया है, अर्थात् धरती के ऊपर दूर–दूर तक अपना पैर पसार रहे हैं लेकिन आशा की लाल किरणें भी इस अन्धकार को चीरकर प्रकट हो रही हैं। प्रकृति की दृष्टि से सब बराबर हैं। वह सबकी सहायता, सबकी मित्र हैं।

इन पंक्तियों में कवि के कहने का आशय यह है कि पृथ्वी पर शक्तिशाली लोग अनैतिक कार्यों में लिप्त हैं तथा उनके द्वारा दमन तथा आतंक की काली छाया फैल गई है। किन्तु आशा की प्रकाशवान किरणें नई प्रेरणा प्रदान कर रही है। इस प्रकार कवि ने सबके कल्याण की कामना की है। सम्पूर्ण विश्व को कवि सुखी एवं सम्पन्न देखना चाहता है।

विराट प्रकाश एक, क्रान्ति की ज्वाला एक,
धड़कते वक्षों में है सत्य की उजाला एक,
लाख–लाख पैरों की मोच में है वेदना का तार एक,
हिये में हिम्मत का सितारा एक।
चाहे जिस देश, प्रान्त, पुर का हो
जन–जन का चेहरा एक।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से ली गई है। इसके हित शिल्पकार आधुनिक हिन्दी की नई शैली के प्रतिनिधि कवि मुक्तिबोध हैं। यह कविता उनकी दूर दृष्टि एवं सृजनशीलता की परिचायक है।

कविता का अर्थ है कि प्रकाश का रूप एक है वह सभी जगह एक प्रकार की ही क्षमता रखता है। क्रान्ति से अत्यन्त ऊर्जा एवं शक्ति का रूप भी सर्वत्र एक समान है। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की धड़कन भी एक समान होती है। हृदय के अन्तःस्थल में सत्य का प्रकाश भी सबसे एक ही प्रकार का रहता है। विश्व भर के लाखों–लाख व्यक्तियों के पैरों में एक ही प्रकार की मोच अनुभव की जा रही है। उनमें परस्पर वेदना की अनुभूति में भी कोई अंतर नहीं है सबका हृदय पूर्ण रूपेण साहस से एक समान ओत–प्रोत है। व्यक्ति का देश, प्रान्त या नगर भिन्न होने से इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसका कारण है कि सबका चेहरा एक समान है।

वस्तुतः कवि ने इन पंक्तियों में वैश्वीकरण की भावना को अभिव्यक्ति करते हुए कहा है सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान एवं चेतना की ज्योति ने एकरूपता है तथा वह संसार के कण–कण को अपने तीव्र प्रकाश से प्रकाशित कर रही है। उसके द्वारा प्रस्फुटित क्रान्ति की ज्वाला अर्थात् प्रेरणा भी सर्वव्यापी तथा एक समान है। सत्य का उज्ज्वल प्रकाश प्रत्येक व्यक्ति के हृदय की धड़कन बन गया है। अर्थात् सदाचरण की भावना जन–जन के हृदय में व्याप्त है। थकावट तथा वेदना से प्राप्त सबके हृदय में साहस एक समान है क्योंकि नगर, प्रान्त तथा देश भिन्न होते हुए भी प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा एक जैसा है। इस प्रकार कवि “वसुधैव–कुटुम्बकम्” के उच्चादर्श से अभिप्रेरित है।

एशिया के, यूरोप के, अमरिका के
भिन्न–भिन्न वास–स्थान;
भौगोलिक, ऐतिहासिक बन्धनों के बावजूद,
सभी ओर हिन्दुस्तान, सभी ओर हिन्दुस्तान।
सभी ओर बहनें हैं, सभी ओर भाई हैं।
सभी ओर कन्हैया ने गायें चरायी हैं।
जिन्दगी की मस्ती की अकुलाती भोर एक
बंसी की धुन सभी ओर एक।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य–पुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” काव्य पाठ में संकलित हैं। यह सारगर्भित काव्यांश संवेदनशील कवि मुक्तिबोध की सरस लेखनी से निःसृत हुआ है। इस कविता में कवि ने अपनी अभूतपूर्व काव्य–रचना का परिचय देते हुए अपनी भारत–भूमि के गौरवशाली अतीत का वर्णन किया है।

प्रस्तुत पंक्तियाँ में कवि का कथन है कि भिन्न–भिन्न संस्कृतियों वाले एशिया, यूरोप तथा अमेरिका जैसे महादेश अपनी भौगोलिक तथा ऐतिहासिक विशिष्टताओं के बावजूद भारतवर्ष की जीवन–शैली से प्रभावित है। भारत की संस्कृति में भगवान कृष्ण की छवि अंकित है। प्रत्येक स्थान परं भाइयों तथा बहनों का सा प्रेम–भाव है। कृष्ण ने सभी स्थान पर कभी गायें चराई थीं। सभी ओर वह बंशी की धुन एक समान सुनाई देती है। जीवन की उमंग से भरपूर यह वातावरण है।

कवि के कहने का आशय यह है कि संसार के विभिन्न क्षेत्र अपने भौगोलिक तथा ऐतिहासिक बंधनों में बँधे होते हुए भी भारत की संस्कृति से प्रभावित हैं। भारत प्राचीन काल से ही विश्व का पथ–प्रदर्शन करता रहा है। भारत की महान परंपरा रही है। यहाँ सभी के साथ भाई–बहन जैसी स्नेह की धारा बहायी गयी है। आज भी कृष्ण के गाय चराने की स्मृति ताजी है। भारत की विश्वबन्धुत्व की भावना से सम्पूर्ण विश्व प्रभावित है।

दानव दुरात्मा एक,
मानव की आत्मा एक
शोषक और खूनी और चोर एक।
जन–जन के शीर्ष पर,
शोषण का खड्ग अति घोर एक।
दुनिया के हिस्सों में चारों ओर
जन–जन का युद्ध एक।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धत है। इस काव्यांश के रचयिता सुप्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध हैं। विद्वान कवि ने इन पंक्तियों में संसार की दारूण एवं अराजक स्थिति का चित्रण किया है।

इन पंक्तियों में कवि का कथन है कि आज पूरे विश्व में दानव और दुरात्मा एकजुट हो गए हैं दोनों ही एक हैं। सम्पूर्ण मानवता की आत्मा एक है। शोषण करनेवाले, खूनी तथा चोर भी एक हैं। प्रत्येक व्यक्ति के सिर पर चलने वाली खतरनाक तलवार भी एक प्रकार की है। संसार के सम्पूर्ण क्षेत्र में चारों ओर प्रत्येक व्यक्ति द्वारा छेड़ा गया युद्ध भी एक ही शैली में है।

इन पंक्तियों में.भावुक कवि मुखर हो गया है वह अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए कहता है कि सभी स्थान पर दानव तथा दुरात्मा आतंक मचाए हैं–दोनों में कोई अंतर नहीं है।

जने–समुदाय का शोषण, हत्या तथा चोरी करने वाले भी समान रूप से अपने कार्यों में लिप्त हैं। शोषण की क्रूर तलवार भी एक समान है अर्थात् समान रूप से हर व्यक्ति के सिर पर नाच रही है। सम्पूर्ण विश्व में युद्ध का वातावरण है तथा हर व्यक्ति एक प्रकार से ही युद्ध में लिप्त है। किन्तु कवि अनुभव करता है कि दुरात्मा पुण्यात्मा सज्जन एवं दुर्जन, सभी की आत्मा एक समान है, पवित्र एवं दोष रहित है।

मस्तक की महिमा
व अन्तर की उष्मा
से उठती है ज्वाला अति क्रुद्ध एक।
संग्राम का घोष एक,
जीवन–संतोष एक।
क्रान्ति का, निर्माण का, विजय का सेहरा एक,
चाहे जिस देश, प्रान्त, पुर का हो।
जन–जन का चेहरा एक !

व्याख्या–प्रस्तुत व्याख्येय सारगर्भित पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक दिगंत, भाग–2 के “जन–जन का चेहरा एक” शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता यशस्वी कवि मुक्तिबोध हैं। कवि ने इस कविता में संसार की वर्तमान स्थिति तथा उसमें वास करने वाले लोगों की मानसिकता का वर्णन किया है। इन पंक्तियों में कवि की मान्यता है कि सभी के मस्तिष्क का समान महत्व है। हृदय के अन्दर से उठने वाली अत्यन्त तीव्र ज्वाला की प्रखरता भी एक समान होती है। युद्ध की घोषणा भी एक प्रकार की होती है। इसी प्रकार जीवन में संतोष की भावना में भी एकरूपता रहती है। क्रान्ति निर्माण तथा विजय के सेहरा का भी रूप एक है। संसार के किसी भी नगर, प्रान्त तथा देश के निवासी का चेहरा भी एक समान है।

कवि इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि संसार में अनेकों प्रकार के अत्याचार, शोषण तथा समान रूप से अनवरत जारी है। उसी प्रकार जनहित के अच्छे कार्य भी समान रूप से हो रहे हैं। किन्तु सभी का आत्मा एक है। सबके अन्दर हृदय एक समान है

इसीलिए कवि कहता है–“संग्राम का घोष एक, जीवन–संतोष एक”

अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति संघर्षरत है–वह चाहे निर्माण कार्य के लिए हो अथवा विनाश के लिए। क्रान्ति का आह्वान प्रत्येक मनुष्य के अन्दर में विद्यमान रहता है। निर्माण में भी उसकी अहम भूमिका होती है। अपने कार्यों के लिए समान रूप से अनेक मस्तक पर विजय का सेहरा बँधता है। प्रत्येक व्यक्ति वह चाहे जिस नगर, प्रान्त तथा देश–अर्थात् क्षेत्र का हो उसका चेहरा एक है। कवि को ऐसी आशा है कि अन्ततः मानवता की दानवता पर विजय होगी। वह इस दिशा में आश्वस्त दिखता है। कवि सारे विश्व के व्यक्तियों को समान रूप से देखता है। उसकी मान्यता है कि उनमें देश, काल की विभिन्नता रहते हुए भी मानसिकता एक है, बाहरी आचरण एक प्रकार का है।

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