Chapter 1 – राम बिनु बिरथे जगि जनमा, जो नर दुख में दुख नहिं मानै

राम बिनु बिरथे जगि जनमा, जो नर दुख में दुख नहिं मानै

कविता के माथ

प्रश्न 1.
कवि किसके बिना जगत् में यह जन्म व्यर्थ मानता है ?
उत्तर-
कवि राम-नाम के बिना जगत में यह जन्म व्यर्थ मानता है। राम-नाम के बिना व्यतीत होने वाला जीवन केवल विष का भोग करता है।

प्रश्न 2.
वाणी कब विष के समान हो जाती है ?
उत्तर-
जब वाणी वाह्य आडंबर से सम्पन्न होकर राम-नाम को त्याग देती है तब वह विष हो जाती है। राम-नाम के अतिरिक्त उच्चरित ध्वनि काम-क्रोध, मद सेवन आदि से परिपूर्ण होती है।

प्रश्न 3.
नाम-कीर्तन के आगे कवि किन कर्मों की व्यर्थता सिद्ध करता है?
उत्तर-
पुस्तक पाठ, व्याकरण के ज्ञान की बखान, दंड कमण्डल धारण करना, सिखा बढ़ाना, . तीर्थ- भ्रमण, जटा बढ़ाना, तन में भस्म लगाना, वस्त्रहीन होकर नग्न रूप में घूमना इत्यादि कर्म ईश्वर प्राप्ति के साधन माने जाते हैं। लेकिन कवि कहते हैं कि भगवत् नाम-कीर्तन के आगे ये सब कर्म व्यर्थ हैं।

प्रश्न 4.
प्रथम पद के आधार पर बताएं कि कवि ने अपने युग में धर्म-साधना के कैसे-कैसे रूप देखे थे?
उत्तर-
प्रथम पद में कवि ने धर्म साधना के अनेक लोक प्रचलित रूप की चर्चा करते हैं। सिखा बढ़ाना, ग्रंथों का पाठ करना, व्याकरण वाचना इत्यादि धर्म साधना माने जाते हैं। इसी तरह तन में भस्म रमाकर साधु वेश धारण करना, तीर्थ करना, डंड कमण्डल धारी होना, वस्त्र त्याग करके नग्न रूप में घूमना भी कवि के युग में धर्म-साधना के रूप रहे हैं। पद में इन्हीं रूपों का बखान कवि ने दिये हैं।

प्रश्न 5.
हरिरस से कवि का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-
कवि राम नाम की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि भगवान के नाम से बढ़कर ___ अन्य कोई धर्म साधना नहीं है। भगवत् कीर्तन से प्राप्त परमानंद को हरि रस कहा गया है। भगवान्
के नाम कीर्तन, नाम स्मरण में डूब जाना, हरि कीर्तन में रम जाना और कीर्तन में उत्साह, परमानंद की अनुभूति करना ही हरि रस है। इसी रस पान से जीव धन्य हो सकता है।

प्रश्न 6.
कवि की दृष्टि में ब्रह्म का निवास कहाँ है ?
उत्तर-
जो प्राणी सांसारिक विषयों की आसक्ति से रहित है, जो मान-अपमान से परे है, हर्ष-शोक दोनों से जो दूर है, उन प्राणियों में ही ब्रह्म का निवास बताया गया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह जिसे नहीं छूते वैसे प्राणियों में निश्चित ही ब्रह्म का निवास है।

प्रश्न 7.
गुरु की कृष्ण से किस युक्ति की पहचान हो पाती है ?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि ब्रह्म से साक्षात्कार करने हेतु लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा आदि से दूर होना आवश्यक है। ब्रह्म के सानिध्य प्राप्ति के लिए सांसारिक विषयों से रहित होना अत्यन्त जरूरी है। जो प्राणी माया, मोह, काम, क्रोध लोभ, हर्ष-शोक से रहित है उसमें ब्रह्म का अंश विद्यमान हो जाता है। वह ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। ब्रह्म प्राप्ति की यही युक्ति की पहचान गुरु कृपा से ही हो पाती है। गुरु बिना ब्रह्म को पाने की युक्ति का ज्ञान नहीं मिल सकता। अर्थात् ब्रह्म को पाने के लिए गुरु का कृपा पात्र होना परमावश्यक है।

प्रश्न 8.
व्याख्या करें :
(क) राम नाम बिनु अरुझि मरै ।
(ख) कंचन माटी जाने ।
(ग) हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना।
(घ) नानक लीन भयो गोविंद सो, ज्यों पानी संग पानी।
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक हिंदी साहित्य के महान संत कवि गुरुनानक . के द्वारा लिखित “राम नाम बिनु निर्गुण जग जनमा” शीर्षक से उद्धृत है। गुरुनानक निर्गुण, निराकार ईश्वर के उपासक तथा हिंदी की निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि हैं। यहाँ राम नाम की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।

प्रस्तुत व्याख्य पंक्ति में निर्गुणवादी विचारधारा के कवि गुरुनानक राम-नाम की गरिमा मानवीय जीवन में कितनी है इसका उजागर सच्चे हृदय से किये हैं। कवि कहते हैं कि राम-नाम का अध्ययन, संध्या वंदन तीर्थाटन रंगीन वस्त्र धारण यहाँ तक की जरा जूट बढ़ाकर इधर-उधर घूमना ये सभी भक्ति-भाव के बाह्याडम्बर है। इससे जीवन सार्थक कभी भी नहीं हो सकता है। राम-नाम की सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं तब तक मानवीय मूल चेतना का उजागर नहीं हो सकता है। राम-नाम के बिना बहुत-से सांसारिक कार्यों में उलझकर व्यक्ति जीवन लीला समाप्त कर लेता है।

(ख) प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक हिंदी साहित्य के “जो नर दुःख में दुख नहीं माने” शीर्षक से उद्धृत है। प्रस्तुत पद्यांश में निर्गुण निराकार ईश्वर के उपासक गुरुनानक सुख-दुख में एक समान उदासीन रहते हुए लोभ और मोह से दूर रहने की सलाह देते हैं।

प्रस्तुत व्याख्येय पंक्ति में कवि ब्रह्म को पाने के लिए सुख-दुःख से परे होना परमावश्यक बताते हैं। वे कहते हैं कि ब्रह्म को वही प्राप्त कर सकता है जो लोक मोह ईर्ष्या-द्वेष, काम-क्रोध से परे हो। जो व्यक्ति सोना को अर्थात् धन को मिट्टी के समान समझकर परब्रह्म की सच्चे हृदय से उपासना करता है वह ब्रह्ममय हो जाता है। जो प्राणि सांसारिक विषयों में आसक्ति नहीं रखता है। उस प्राणि में ब्रह्म निवास करता है।

(म) प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक हिंदी साहित्य के संत कवि गुरुनानक द्वारा रचित “जो नर दःख में दःख नहीं माने” शीर्षक से उद्धृत है। प्रस्तुत पंक्ति में संत गुरुनानक उपदेश देते हैं कि ब्रह्म के उपासक प्राणि को हर्ष-शोक, सुख-दुख, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान से परे होना चाहिए। इन संबके पृथक रहने वाले प्राणियों में ब्रह्म का निवास स्थान होता है।

प्रस्तुत पंक्ति में कवि कहते हैं ब्रह्म निर्गुण एवं निराकार है। वैराग्य भाव रखकर ही हम उसे पा सकते हैं। झूठी मान, बड़ाई या निंदा शिकायत की उलझन मनुष्य को ब्रह्म से दूर ले जाता है। ब्रह्म को पाने के लिए, सच्ची मुक्ति के लिए हर्ष-शोक, मान-अपमान से दूर रहकर, उदासीन रहते हुए ब्रह्म की उपासना करना चाहिए।

(घ) प्रस्तुत प हमार्य पाठ्य पुस्तक हिंदी साहित्य के महान संत कवि गुरुनानक के द्वारा रचित “जो नर दु:खं में द:ख नहीं माने” पाठ से उद्धृत है। इसमें कवि ब्रह्म की सत्ता की महत्ता को बताते हैं। मनुष्य जन्म का अंतिम लक्ष्य ब्रह्म को पाना बताते हुए कहते हैं कि सांसारिक व्यक्ति से दूर रहकर मनुष्य को ब्रह्ममय होने की साधना करनी चाहिए। गुरु कृपा से ईश्वर की प्राप्ति । संभव है।

प्रस्तुत व्याख्येय पंक्ति के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं। इस मानवीय जीवन में ब्रह्म को . पानी की सच्ची युक्ति, यथार्थ उपाय करना आवश्यक है। पर ब्रह्म को पाना प्राणि का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। जिस प्रकार पानी के साथ पानी मिलकर एकसमान हो जाता है उसी प्रकार जीव जब ब्रह्म के सानिध्य में जाता है तब ब्रह्ममय हो जाता है। जीवात्मा एवं परमात्मा में जब मिलन होता है तब जीवात्मा भी परमात्मा बन जाता है। दोनों का भेद मिट जाता है। कवि कहते हैं कि यह जीव ब्रह्म का ही अंश है। जब हम विषयों की आसक्ति से दूर रहकर गुरु की प्रेरणा से ब्रह्म को पाने की साधना करते हैं तब ब्रह्म का साक्षात्कार होता है और ऐसा होने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है।

Bihar Board Class 10 Hindi Book Solution प्रश्न 9.
आधुनिक जीवन में उपासना के प्रचलित रूपों को देखते हुए नानक के इन पदों . की क्या प्रासंगिकता है ? अपने शब्दों में विचार करें।
उत्तर-
आधुनिक जीवन में उपासना के विभिन्न स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। ईश्वरीय उपासना में लोग तीर्थाटन करते हैं, जटा-बढ़ाकर, भस्म रमाकर साधु वेश धारण करते हैं। गंगा स्नान दान पुण्य करते हैं। मंदिर मस्जिद जाकर परमात्मा की पुकार करते हैं। साथ ही आज धर्म के नाम पर विभेद भी किया जाता है। धर्म को प्रतिष्ठा प्राप्ति के साधन मानकर धार्मिक बाह्याडम्बर अपनाया जा रहा है। बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन किये जाते हैं जिसमें अत्यधिक धन का व्यय भी किया जाता है। फिर भी लोगों को सुख-शांति नहीं मिलती है। आज लोग भटकाव के पथ पर अग्रसर है। समयाभाव में ईश्वर के सानिध्य में जाने हेतु कठिनतम उपासना के मार्ग को अपनाने में लगे अभिरुचि नहीं रख रहे हैं। इसलिए धार्मिक क्षेत्र में भटकाव आ गया है। हम कह सकते हैं कि नानक के पद में वर्णित राम-नाम की महिमा आधुनिक जीवन में सप्रासंगिक है। हरि-कीर्तन सरल मार्ग है जिसमें न अत्यधिक धन की आवश्यकता है नहीं कोई बाह्माडम्बर की। आज भगवत् नाम रूपी रस का पान किया जाये तो जीवन में उल्लास, शांति, परमानन्द, सुख, ईश्वरीय अनुभूति को प्राप्त किया जा सकता है। हरि रस पान से जीवन को धन्य बनाया जा सकता है। नानक के उपदेश को अपनाकर यथार्थ से युक्त होकर हम जीवन में ब्रह्म का साक्षात्कार आज भी कर सकते हैं।

भाषा की बात

प्रश्न 1.
दोनों पदों में प्रयुक्त सर्वनामों को चिहित करें और उनके भेद बताएं।
उत्तर-
कहाँ – प्रश्नवाचक सर्वनाम
कोई – अनिश्चयवाचक सर्वनाम
तें – पुरूषवाचक सर्वनाम
यह – निश्चयवाचक सर्वनाम
सो – संबंधवाचक सर्वनाम

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के वाक्य-प्रयोग करते हुए लिंग-निर्णय करें –
जम, मुक्ति, धोती, जल, भस्म, कंचन, जुमति, स्तुति
उत्तर-
जग – जग बड़ा है।
मुक्ति – उसे मुक्ति मिल गई।
धोती – धोती नई है। जल गंदा है।
भस्म – लग गया।
जुगति – उसकी जुगटी अनूठी है।
स्तुति – ईश्वर की स्तुति करनी चाहिए।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित विशेषणों का स्वतंत्रत वाक्य प्रयोग करें
व्यर्थ, निष्फल, नग्न, सर्व, न्यारा, सकल
उत्तर-
व्यर्थ – राम नाम के बिना जीवन व्यर्थ है।
निष्फल – प्रयोग निष्फल हो गया।
नग्न – वह नग्न बैठा है।
सर्व – सर्व नष्ट हो गया।
न्यारा – संसार न्यारा है।
सकल – आतंकवाद पर सकल विश्व एक हों।

काव्यांशों पर आधारित अर्थ-ग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर

1. राम नाम बिनु बिरथे जबह जनमा।
– बिखु खावै बिखु बोलै बिनु नावै निहफलु मटि भ्रमना॥
पुस्तक पाठ व्याकरण बखारौं संधिआ करम निकाल करै।
बिनु गुरसबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु अरुझि मरै॥
ठंड कमंडल सिखा सूत धोती तीरथ गवनु अति भ्रमनु करे।
समनाम बिनु सांति न आवै जपि हरिहरि नाम सुपारि घरै।
जटा मुकुट तन भसम लगायी वसन छोड़ि तन नगन भया।
जेते जी अजंत जल थल महोअल जत्र तत्र तू सरब जीआ॥
गुरु परसादि राखिले जन कोउ हरिरस नामक झोलि पीआ।

प्रश्न
(क) कविता और कवि का नाम लिखें।
(ख) पद का प्रसंग लिखें।
(ग) पद का सरलार्थ लिखें।
(घ) भाव सौंदर्य स्पष्ट करें।
(ङ) काव्य सौन्दर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-
(क) कवि- गुरुनानक
कविता- राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा।
(ख) प्रस्तुत कविता में संत कवि गुरुनानक बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ, तीर्थ स्नान और कर्मकाण्ड के स्थान पर सरल सच्चे हृदय से राम नाम की भक्ति करने पर बल दिया है।
(ग) नानक कहते हैं कि राम नाम के बिना इस संसार में जन्म लेना व्यर्थ है। बिना राम की भक्ति के भोजन, बोली, भ्रमण बुद्धि ये सभी विष बन जाते हैं, कार्य भी निष्फल हो जाते हैं। पुस्तक पढ़ना, शब्द-ज्ञान के लिये व्याकरण का अध्ययन करना यहाँ तक कि संध्या उपासना करना ये सभी राम की भक्ति के बिना निरर्थक होते हैं।

कवि गुरु की महिमा का बखान करते हुये कहते हैं कि बिना गुरु की कृपा के मुक्ति नहीं मिल सकती है। साथ ही राम नाम की भक्ति के बिना इंस सांसारिक मोह-माया से मानव उलझकर मर जाता है। दण्ड, कमंडल, सिखा बजाकर, जनेऊ धारण कर, रंगीन धोती पहनकर तथा इधर-उधर तीर्थों में भटककर मनुष्य अपना समय व्यर्थ बर्बाद करता है। ये सभी तो बाह्याडम्बर हैं। इन आडम्बरों से ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है, राम नाम के बिना शांति नहीं मिल सकती है। अतः राम-नाम जपने से ही मनुष्य इस संसार-रूपी भव सागर से पार उतरकर मोक्ष प्राप्ति कर सकता है। पुनः नानक कहते हैं कि हे मानव जटारूपी मुकुट पहन कर शरीर में भस्म लगाकर वस्त्रहीन होकर तथा नंगे बदन होकर भ्रमण करने से ईश्वरीय भक्ति प्राप्त नहीं किया जा सकता है। नानक कहते हैं कि जिस प्राणी पर गुरु की कृपा होती है चाहे वह जल में रहता हो, धरती पर रहता हो या सभी जगह रहता हो, उसी प्राणी को ईश्वर की भक्ति रूपी रस. पीने के लिये मिलता है अर्थात् ईश्वर भक्ति की अलौकिक आनंद की अनुभूति उसी प्राणी को प्राप्त होती है।

(घ) इस कविता में निर्गुणवादी विचारधारा प्रकट हुयी है। इसमें कवि बाहरी वेश-भूषा, तीर्थाटन कर्मकाण्ड के विरोध करते हुये सच्चे हृदय से भक्ति-भावना पर प्रकाश डालते हैं। कवि का मानना है कि परमात्मा की भक्ति बाह्य दिखाने से नहीं हो सकती है। परमात्मा की भक्ति रूपी सरस का अलौकिक पान करने के लिये सच्चे हृदय और ज्ञान की आवश्यकता है।
(A) (i) यहाँ निर्गुण निराकार ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया है।
(ii) भाषा की दृष्टि से पंजाबी मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग लाक्षणिक और व्यञ्जना रूप में किया गया है।
(iii) भाव के अनुसार भाषा का प्रयोग अनायास ही भक्ति भावना की ओर अग्रसर होना पड़ता है।
(iv) कहीं-कहीं तत्सम शब्दों का भी प्रयोग प्रशंसनीय है। भाषा में सरलता और सुबोधता के कारण प्रसाद गुण की अपेक्षा है।
(v) अलंकार की दृष्टि से अनुप्रास उपमा और दृष्टांत मनोभावन है।

2. जो नर दुख में दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जाने।
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना।
आसा मनसा सकल तयागि कै जय तें रहै निरासा।
काम क्रोध जेहि परसे नाहिन तेहिं घट ब्रह्म निकासा
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगति पिलानी
नानक लीन भयो गोबिंद सो ज्यों पानी सँग पानी

प्रश्न
(क) कविता और कवि का नाम लिखें।
(ख) पद का प्रसंग लिखें।
(ग) पद का सरलार्थ लिखें।
(घ) भाव सौंदर्य स्पष्ट करें।
(ङ) काव्य सौंदर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-
(क) कबि-गुरुनानका .
– कविता-जो नर दुख में दुख नहीं माने।
(ख) निर्गण निराकार ईश्वर के उपासक गरुनानक ने प्रस्तुत कविता में सुख-दुख में एक समान उदासीन रहते हुए मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अंत:करण की निर्मलता हासिल करने पर जोर दिया है। संत कवि गुरु की कृपा प्राप्त कर गोविंद से एकाकार होने की प्रेरणा देता है।
(ग) प्रस्तुत कविता में ईश्वर की निर्गुणवादी सत्ता को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य दुःख को दुःख नहीं समझता है अर्थात् दुःखमय जीवन में भी समान रूप.में रहता है उसी का जीवन सार्थक होता है। जिसके जीवन में सुख, प्यार, भय नहीं आता है अर्थात् इस परिस्थिति में भी तटस्थ रहकर मानसिक दुर्गुणों को दूर करता है, लोभ से रहित सोने को भी माटी के समान समझता है वही प्रभु की कृपा प्राप्त कर सकता है। जो मनुष्य न किसी की निंदा करता है, न किसी की स्तुति करता है लोभ, मोह, अभिमान से दूर रहता है, न सुख में प्रसन्नता जाहिर करता है और . न संकट में शोक उपस्थित करता है तथा मान अपमान से रहित होता है वही ईश्वर भक्ति के सुख को प्राप्त कर सकता है। जो मनुष्य आशा निराशा, बढ़ी-चढ़ी कामनाओं से दूर रहता है, जिस काम और क्रोध विचलित नहीं करता है उसी के हृदय में ब्रह्म का निवास होता है। गुरुनानक कहते हैं कि जिस व्यक्ति पर गुरु की कृपा होती है वही व्यक्ति ईश्वर को पहचान सकता है। यहाँ तक कि ईश्वर के उपासक गुरुनानक भी अपने गुरु के कृपा से ही गोविंद की भक्ति में उसी तरह मिल गये हैं जिस तरह पानी के संग पानी मिल जाता है।

(घ) भाव सौंदर्य-प्रस्तुत कविता का भाव यह है कि जो मनुष्य सुख-दुख में एक समान रहता है, आशा-निराशा से दूर रहता है। निंदा प्रशंसा में भी समान स्थिति में रहता है वही व्यक्ति गुरु की कृपा होती है वही व्यक्ति ईश्वर का आनंद लेता है क्योंकि गुरु कृपा के बिना ईश्वर की पहचान नहीं हो सकता है।

(ङ) काव्य सौंदर्य-
(i) यहाँ भाव के अनुसार ही भाषा का प्रयोग है।
(ii) ईश्वर भक्ति और गुरु भक्ति का सामंजस्य स्थापित हुआ है।
(ii) पंजाबी मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग सफल कवि का प्रतीक है।
(iv) भाषा में संगीतमयता, सरलता और मोहकता आ गई है।

विस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. सही विकल्प चुनें

प्रश्न 1.
राय नाम बिनु बिरथे जगि जनश्या’ किस कवि की रचना है ?
(क) गुरु नानक
(ख) गुरु अर्जुनदेव
(ग) रसखान
(घ) प्रेमधन
उत्तर-
(क) गुरु नानक

प्रश्न 2.
गुरु नानक की रचना है
(क) अति सूधो सलेट को मारता है
(ख) मो अंसुवा निहि लै बरसौ
(ग) जो नर दुख में दुख नहिं मानें
(घ) स्वदेश
उत्तर-
(ग) जो नर दुख में दुख नहिं मानें

प्रश्न 3.
गुरु नानक के अनुसार किसके बिना जन्म व्यर्थ है ?
(क) सम्पत्ति
(ख) इष्ट मित्र
(ग) पत्नी
(घ) राम नाम
उत्तर-
(घ) राम नाम

प्रश्न 4.
ब्रह्म का निवास कहाँ होता है ?
(क) समुद्र में
(ख) काम-क्रोधहीन व्यक्ति में
(ग) स्वर्ग में
(घ) आकाश में
उत्तर-
(ख) काम-क्रोधहीन व्यक्ति में

प्रश्न 5.
गुरु कृपा की महत्ता का वर्णन किस कवि ने किया है ?
(क) घनानंद
(ख) रसखान
(ग) गुरु नानक
(घ) सुमित्रानंदन पंत
उत्तर-
(ग) गुरु नानक

प्रश्न 6.
गुरु नानक किस भक्ति धारा के कवि हैं ?
(क) सगुण भक्ति धारा ।
(ख) निर्गुण भक्ति धारा
(ग) सिख भक्ति धारा
(घ) किसी भी धारा के नहीं
उत्तर-
(ख) निर्गुण भक्ति धारा

II. रिक्त स्थानों की मूर्ति करें

प्रश्न 1.
गुरु नानक का जन्म सन् …………. में हुआ था।
उत्तर-
1469

प्रश्न 2.
…….. गुरु नानक के पिता थे।
उत्तर-
कालूचंद खत्री

प्रश्न 3.
गुरु नानक ने ………….की स्थापना की।
उत्तर-
सिख पंथ

प्रश्न 4.
गुरु नानक ने पंजाबी के साथ …. में कविताएं की।
उत्तर-
हिन्दी

प्रश्न 5.
सामाजिक विद्रोह गुरु नानक की कविताओं का …….नहीं है।
उत्तर-
विषय

प्रश्न 6.
गुरु नानक की कविताओं में …………. की महत्ता निर्विवाद है।
उत्तर-
सहज प्रेम

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गुरु नानक का जन्म कहाँ हुआ था? .
उत्तर-
गुरु नानक का जन्म तलवंडी नामक गाँव जिला-लाहौर में हुआ था जो फिलहाल पाकिस्तान में है। उस स्थान को अब नानकाना साहब कहते हैं।

प्रश्न 2.
गुरु नानक किस युग के कवि थे?
उत्तर-
गुरु नानक मध्य युग के संत कवि थे।

प्रश्न 3.
‘गुरु ग्रंथ साहिब’ किनका पवित्र ग्रंथ है ?
उत्तर-
गुरु ग्रंथ साहिब’ सिखों का पवित्र ग्रंथ है। इसमें गुरु नानक एवं कुछ अन्य संतों की । रचनाएँ संकलित हैं।

प्रश्न 4.
कवि किससे बिना जगत में यह जन्म व्यर्थ मानता है?
उत्तर-
कवि राम नाम के बिना जगत् में यह जन्म व्यर्थ मानता है।

प्रश्न 5.
वाणी कब विष के समान हो जाती है ?
उत्तर-
जिस वाणी से राम नाम का उच्चारण नहीं होता है अर्थात् भगवत् नाम के बिना वाणी विष के समान हो जाती है।

व्याख्या खण्ड

प्रश्न 1.
राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा।
बिखु खावै बिखु बोलै बिनु नावै निहफलुमटि भ्रमना।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित काव्य-पाठ ‘राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा’ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों द्वारा कवि मनुष्य जाति को संदेश देते हुये कहता है कि इस संसार में राम के नाम के बिना जन्म व्यर्थ है, इस जन्म का सार्थक मोल नहीं। मनुष्य का लक्षण बन गया है—विष पान करना, विष भाषण करना और बिना नाम के बेकार बनकर मतिभ्रम की तरह जिधर-तिधर भटकना इन पंक्तियों में राम नाम की महिमा का गुणगान है।

प्रश्न 2.
पुस्तक पाठ व्याकरण बरवाण संधिआकरम निकाल कर,
बिनु गुरसबद मुकति कहा प्राणी राम नाम बिनु अरूझि.भ.
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा” काव्य पाठ से ली गयी हैं, इन काव्य-पंक्तियों का प्रसंग मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। कवि कहता है कि व्याकरण की किताब संधि-कर्म की जिस प्रकार व्याख्या करती है ठीक वैसा ही गुरु का काम है, राम नाम की महिमा का ज्ञान बिना गुरु के असंभव है। गुरु द्वारा ही शब्द-ज्ञान मिलता है। बिना ज्ञान के मुक्ति असंभव है, बिना ज्ञान के राम नाम की महिमा से हम दूर रह जाते हैं, अनभिज्ञ रह जाते हैं, इस प्रकार व्याकरण और गुरु दोनों का कार्य-व्यापार समान है, जिस प्रकार व्याकरण संधि-कर्म की व्याख्या कर हमें पाठ ज्ञान कराता है, ठीक उसी प्रकार सिद्ध गुरु द्वारा ही राम – नाम के महत्व का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इस मायावी संसार से बिना गुरु शब्द के मुक्ति असंभव है।

प्रश्न 3.
डंड कमंडल सिखा सूत धोती तीरथ गवन अति भ्रमनु करें।
राम नाम बिनु सांति न आवै जपि हरि हरि नाम सु पारित परै।।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा’ नामक काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का प्रसंग मानव जीवन में व्याप्त पाखंड है।

कवि कहता है कि मनुष्य बाहरी आडम्बरों के फेरे में पड़कर भटक रहा है। उसे सत्य का ज्ञान ही नहीं। वह डंड, कमंडल, शिखा, सूत, धोती, तीरथ आदि के साथ सारा जीवन भरमता रहता है। यानी भटकता रहता है। वह सत्य मार्ग से दूर चला जाता है।

राम नाम के बिना शांति कैसे मिले ? बिना हरिनाम के स्मरण के इस भवसागर से मुक्ति । मिल सकती है क्या? यहाँ सांसारिक आडंबरों के बीच जी रहे मानव की मूर्खता के विषय में कवि ध्यान दिलाता है। वह बताता है कि इस मायावी संसार से मुक्ति तभी मिलेगी जब हम सही रूप में, सच्चे मन से हरि स्मरण करेंगे। यहाँ गूढ भाव यह है कि मानव जीवन सत्य पर आधारित होना चाहिए। मनुष्य को पाखंड से दूर रहकर निर्मल मन और भाव से प्रभु-पूजा करनी चाहिए।

प्रश्न 4.
जटा मुकुट तन भसम लगाई, वसन छोड़ि तन नगन भया।
जेते जीअ जंत जल-थल महीअल जत्र तत्र तू सरब जीआ
गुरु परस्पदी राखिले जन कोउ हरिरस नानक झोलि पीआ।
व्याख्या-
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के रामनाम बिनु बिरथे जगि जनमा’ काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का संबंध मनुष्य के जीवन में व्याप्त अनेक तरह की विसंगतियों से है।

कवि कहता है कि मनुष्य जटा बढ़ा लेता है तन में राख पोत लेता है और मुकुट धारण कर लेता है। सारे वस्त्रों का परित्याग कर आधुनिक युग में नग्न रहने लगा है। जिस प्रकार इस जल-थल पर जंतु जीते हैं ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी सर्वत्र जीता है, विचरण करता है। लेकिन अंत में गुरु नानक जी कहते हैं कि ऐ मनुष्यों-गुरु का प्रसाद-ग्रहण कर लो। गुरु नानक ने तो हरि रस की झोलि यानी रस, शर्बत पी ही लिया है।

इन पंक्तियों में कवि के कहने का भाव यह है कि बिना ईश्वर के साथ लगातार संबंध बनाये, आस्था रखे, इस जीवन का कल्याण नहीं, मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। आडंबर में जीने पर मुक्ति पाना असंभव है। आडंबर से दूर रहकर निर्मल भाव से ईश्वर की साधना कर ही हम मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।

प्रश्न 5.
जो नर दुख में दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरू भय नहिं जाके, कंचन माटी जान।
व्याख्या-
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “जो नर दुख में दुख नहिं मान” नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का प्रसंग मानव-जीवन में आए दुख से है।
कवि कहता है कि वही मनुष्य सही मनुष्य है जो अपने जीवन में आए दुःख में नहीं घबराए, उसे दुःख नहीं माने बल्कि धैर्य के साथ उसका सामना करे। वही मनुष्य सच्चा मानव है जो निर्लिप्त भाव से जीवन जीये। सुख, स्नेह और भय तीनों स्थितियों में जो विकाररहित और निर्भय होकर रहे, जो सोना को भी माटी समझे, वही सच्चा इन्सान है। वहीं ईश्वर के निकट है। वह मायावी जगत से दूर है। ऐसे मनुष्य से ही इस धरा का कल्याण संभव है। इन पंक्तियों में गुरु नानक ने भौतिक दुनिया की मोह-माया से मुक्त होकर जीनेवाले नर की प्रशंसा की है।

प्रश्न 6.
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना। :
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना।
व्याख्या-
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के. “जो नर दुख में दुख नहिं मानै” नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का प्रसंग मनुष्य के सद्विचारों से जुड़ा हुआ है।
कवि कहता है कि जो मनुष्य निंदा और स्तुति के बीच समभाव से जीता है, जो लोभ, मोह, अभिमान से मुक्त है। हर्ष और शोक के निकट रहकर भी जो अशोक के रूप में जीए। जिसे मान-अपमान की चिंता नहीं हो, वह सच्चा मानव है, महामानव है। इन काव्य पंक्तियों में गुरु नानक ने महामानव के लक्षणों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने इस मायावी लोक में निर्लिप्त भाव से जीनेवाले कर्मवीरों की प्रशंसा की है। उनके गुणों को बताया है।

प्रश्न 7.
आसा मनसा सकल त्यागिकै जग तें रहै निरास
काम क्रोध जेहि परसे चाहिन हि घट ब्रा निवासा।
व्याख्या-
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “जो नर दुख में दुख नहिं मानै” काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का प्रसंग मनुष्य के सात्विक जीवन से जुड़ा हुआ है।

कवि कहता है कि वही मनुष्य महामानव है, जो मानसिक विकारों से दूर रहे, जिसने आकांक्षाओं पर विजय प्राप्त कर लिया हो, जिसने सन्मार्ग ग्रहण कर लिया है, इस जग से जिसे कोई मोह-माया नहीं, जो आशा और निराशा के बीच महाप्रज्ञ के रूप में जीये वही लोकोत्तर महामानव है। काम-क्रोध जिसे स्पर्श नहीं कर सका हो उसी के घर में, कंठ में ब्रह्म निवास करता है। कहने का गूढ़ भाव यह है कि सांसारिकता से जो मुक्त होकर जीवन जीता है वही ब्रह्म के निकट है, ईश्वर के निकट है, उसी का जीवन सार्थक है।

प्रश्न 8.
युरु किरपा जेति नर मै कोही मिन्ह यह ति पिलानी
नानक लीन भयो गोविन्द सो न्यों पानि सवानी।।
व्याखया-
प्रस्तुत काव्य पक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “जो नर दुख में दुख नहिं मान” नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का प्रसंग गुरु-कृपा के महत्त्व से जुड़ा हुआ है।
कवि कहता है कि जिस मनुष्य पर गुरु-कृपा हो जाती है, उन्हें जुगाति की क्या जरूरत है। उसे किसी प्रकार के उपाय करने, यत्न करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

गुरु नानक परं गुरु की कृपा का ही प्रभाव है कि वे गोविन्द यानी ईश्वर का साक्षात्कार प्राप्त कर सके। जिस प्रकार पानी में पानी को मिलाने पर कोई विकार नहीं दिखता बल्कि दोनों एकात्म रूप में दिखते हैं। दोनों पानी एक समान ही दिखते हैं ठीक उसी प्रकार आत्मा-परमात्मा का भी मिलन होता है। दोनों में रूप या रंग का अंतर नहीं होता है। दोनों मिलकर एकाकार, एक रंग, एक रूप को प्राप्त कर लेते हैं।
इन काव्य पंक्तियों में गुरु महिमा, ईश्वर भक्ति और आत्मा-परमात्मा के रूपाकार पर सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है।

राम बिनु बिरथे जगि जनमा, जो नर दुख में दुख नहिं मानै कवि परिचय

गुरु नानक का जन्म 1469 ई० में तलबंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था । इनका जन्म स्थान ‘नानकाना साहब’ कहलाता है जो अब पाकिस्तान में है । इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री, माँ का नाम तृप्ता और पत्नी का नाम सुलक्षणी था। इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्यम किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया । इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया । वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया । गुरुनानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की । मुगल सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी । गुरु नानक ने ‘सिख धर्म का प्रवर्तन किया । गुरुनानक ने पंजाबी के साथ हिंदी में भी कविताएँ की । इनकी – हिंदी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का मेल है। इनके भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं । इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुंथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में, लेकिन इन्होंने उलटबाँसी शैली नहीं अपनाई । इनके उपदेशों के अंतर्गत गुरु की महत्ता, संसार की क्षणभंगुरता, ब्रह्म की सर्वशक्तिमत्ता, नाम जप की महिमा, ईश्वर की सर्वव्यापकता आदि बातें मिलती हैं । इनकी रचनाओं का संग्रह सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव ने सन् 1604 ई० में किया जो ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । गुरु नानक की रचनाएँ हैं – “जपुजी’, ‘आसादीवार’, ‘रहिरास’ और सोहिला । कहते हैं कि सन् 1539. में इन्होंने ‘वाह गुरु’ कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए ।

निर्गुण निराकार ईश्वर के उपासक गुरुनानक हिंदी की निर्गुण भक्तिधारा के एक प्रमुख कवि हैं। पंजाबी मिश्रित ब्रजभाषा में रचित इनके पद सरल सच्चे हृदय की भक्तिभावना में डूबे उद्गार हैं । इन पदों में कबीर की तरह प्रखर सामाजिक विद्रोह-भावना भले ही न दिखाई पड़ती हो, किन्तु धर्म-उपासना के कर्मकांडमूलक सांप्रदायिक स्वरूप की आलोचना तथा सामाजिक भेदभाव के स्थान पर प्रेम के आधार पर सहज सद्भाव की प्रतिष्ठा दिखलाई पड़ती है । नानक के पद वास्तव में प्रेम एवं भक्ति के प्रभावशाली मधुर गीत हैं । यहाँ नानक के ऐसे दो महत्त्वपूर्ण पद प्रस्तुत हैं । प्रथम पद बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ और कर्मकांड के स्थान पर सरल सच्चे हृदय से राम-नाम के कीर्तन पर बल देता है, क्योंकि नाम-कीर्तन ही सच्ची स्थायी शांति देकर व्यक्ति को इस दुखमय जीवन के पार पहुंचा पाता है। द्वितीय पद में सुख-दुख में एक समान उदासीन रहते
हुए मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अंत:करण की निर्मलता हासिल करने पर जोर दिया गया . है । संत कवि गुरु की कृपा प्राप्त कर इस पद में गोविंद से एकाकार होने की प्रेरणा देता है ।

राम बिनु बिरथे जगि जनमा, जो नर दुख में दुख नहिं मानै

पाठ का अर्थ

निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक गुरूनानक निर्गुणभक्ति धारा के प्रखर कवि हैं। पंजाबी समिश्रित ब्रजभाषा इनकी रचना का मूलाधार है। कबीर की तरह इनकी रचनाएँ भले ही न हो फिर भी धर्म-उपासना, कर्मकाण्ड आदि के स्थान पर प्रेम की पीर की अनुभूति स्पष्ट झलकती है।

पहले पद में कवि ने बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड के स्थान पर सरल हृदय से राम नाम के कीर्तन पर बल दिया है। वस्तुतः कवि दशरथ पुत्र राम की स्तुति न कर परम ब्रह्म उस सत्य की उपासना करने पर बल दिया है जो अगोचर और निराकम है। नाम कीर्तन ही. इस भवसागर से मुक्ति दिलाता है। जिसने जन्म लेकर राम की कीर्तन नहीं किया उसका जीवन निरर्थक है। उस खान-पान, रहन-सहन आदि सभी विष से परिपूर्ण होता है। संध्या, जप-पाठ आदि करने से मुक्ति नहीं मिलती है। जटा बढ़ाकर भस्म लगाने, तीर्थाटन करने से आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति नहीं होती है। गुरू कृपा और राम-नाम ही जीवन की सार्थकता है।

दूसरे पद में कवि ने सुख-दुख में एक समान उदासीन रहते हुए मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अतः करण की निर्भरता हासिल करने पर जोर दिया है। ईर्ष्या, लोभ, मोह आदि से परिपूर्ण मानव के पास ईश्वर फटकता तक नहीं है। जिस प्रकार पानी-पानी के साथ मिलकर अपना स्वरूप उसी में अर्पण कर देता है उसी प्रकार गुरूं की कृपाकर मनुष्य ईश्वर रूपी स्वरूप से प्राप्त कर लेता है।

शब्दार्थ

बिर : व्यर्थ ही
जगि : संसार में
बिखु : विष
नावै : नाम
निहफतु : निष्फल
मटि : मति, बुद्धि
संधिआ : संध्या, संध्याकालीन उपासना
गुरसबद : गुरु का उपदेश
अरुझि : उलझकर
डंड : दंड (साधु लोग जिसे वैराग्य के चिह्न के रूप में धारण करते हैं)
सिखा : चोटी
सुत : जनेऊ
जीअ : जीव
जंत : जंतु, प्राणी ।
महीअल : महीतल, धरती पर
कंचन : सोना
अस्तुति : स्तुति, प्रार्थना
नियारो : न्यारा, अलग, पृथक
परसे : स्पर्श
घट : घड़ा (प्रतीकार्थ – देह, शरीर)
जुगति : युक्ति, उपाय
पिछानी : पहचानी

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