शिक्षा
शिक्षा वस्तुनिष्ठ प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ
प्रश्न 1.
जे. कृष्णमूर्ति का जन्म कब हुआ था?
(क) 12 मई, 1895 ई.
(ख) 10 मई, 1890 ई.
(ग) 7 मई, 1870 ई.
(घ) 5 मई, 1830 ई.
उत्तर-
(क)
प्रश्न 2.
निर्भयता पूर्ण वातावरण निर्माण करने का कार्य कैसा है?
(क) बड़ा कठिन है
(ख) आसान है
(ग) श्रम युक्त है
(घ) बेकार है
उत्तर-
(क)
प्रश्न 3.
आप विद्यालय क्यों जाते हैं?
(क) शिक्षा प्राप्ति के लिए
(ख) नौकरी करने के लिए
(ग) खेल प्रशिक्षण देने के लिए
(घ) पढ़ाने के लिए
उत्तर-
(क)
प्रश्न 4.
साधारणतया सुरक्षा में जीने का क्या अर्थ है?
(क) भय में जीना
(ख) खुशी में जीना
(ग) लोभ में जीना
(घ) लाभ के लिए जीना
उत्तर-
(क)
प्रश्न 5.
संपूर्ण विश्व किधर अग्रसर हो रहा है?
(क) नारा की ओर
(ख) विकास की ओर
(ग) निर्माण की ओर
(घ) बोकर बातों की ओर
उत्तर-
(क)
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
प्रश्न 1.
जे. कृष्णमूर्ति के बचपन का नाम ……… था।
उत्तर-
जिदू कृष्णमूर्ति
प्रश्न 2.
जे. कृष्णमूर्ति का जन्म 12 मई ……. को हुआ था।
उत्तर-
1895 ई.
प्रश्न 3.
जे. कृष्णमूर्ति का निधन 17 फरवरी ………… को हुआ था।
उत्तर-
1986 ई.
प्रश्न 4.
कृष्णमूर्ति का जन्म स्थान ………….. चितूर (आन्ध्र प्रदेश)में है।
उत्तर-
मदनपल्सी
प्रश्न 5.
नि:संदेह केवल उद्योग या कोई …….. ही जीवन नहीं है?
उत्तर-
व
प्रश्न 6.
‘जीवन दीन है, जीवन ………. भी।
उत्तर-
अमीर
शिक्षा अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
बचपन में कैसे वातावरण में रहना आवश्यक है?
उत्तर-
स्वतंत्र।
प्रश्न 2.
मेधा कहाँ नहीं हो सकती है?
उत्तर-
जहाँ भय हो।
प्रश्न 3.
शिक्षा पाठ के रचयिता कौन हैं?
उत्तर-
जे. कृष्णमूर्ति।
प्रश्न 4.
जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षा कृति क्या है?
उत्तर-
संभाषण।
प्रश्न 5.
जे. कृष्णमूर्ति का निधन इनमें से किस स्थान पर हुआ?
उत्तर-
कैलिफोर्निया।
प्रश्न 6.
लीडब्रेटर जे. कृष्णमूर्ति में किसका रूप देखते थे?
उत्तर-
विश्व शिक्षकः।
शिक्षा पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्सर
प्रश्न 1.
शिक्षा का क्या अर्थ है एवं इसके क्या कार्य हैं? स्पष्ट करें।
उत्तर-
शिक्षा का क्या अर्थ जीवन के सत्य से परिचित होना और संपूर्ण जीवन की प्रक्रिया को समझने में हमारी मदद करना है। क्योंकि जीवन विलक्षण है, ये पक्षी, ये पूल, ये वैभवशाली वृक्ष, ये आसमान, ये सितारे, ये मत्स्य सब हमारा जीवन है। जीवन दीन है, जीवन अमीर भी। जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ ईष्याएं, महत्वाकांक्षाएँ वासनाएँ, या सफलताएँ एवं चिन्ताएँ हैं। केवल इतना ही नहीं अपितु इससे कहीं ज्यादा जीवन है। हम कुछ परीक्षाएँ उत्र्तीण कर लेते हैं, हम विवाह कर लेते हैं, बच्चे पैदा कर लेते हैं और इस प्रकार अधिकाधिक यंत्रवत् बन जाते हैं।
हम सदैव जीवन से भयाकुल, चिन्तित और भयभीत बने रहते हैं। शिक्षा इन सबों का निराकरण करती है। भय के कारण मेधा शक्ति कुंठित हो जाती है। शिक्षा इसे दूर करता है। शिक्षा समाज के ढाँचे के अनुकूल बनने में आपकी सहायता करती है या आपको पूर्ण स्वतंत्रता होती है। वह सामाजिक समस्याओं का निराकरण करे शिक्षा का यही कार्य है।
प्रश्न 2.
जीवन क्या है? इसका परिचय लेखक ने किस रूप में दिया है?
उत्तर-
लेखक के अनुसार यह सारी सृष्टि ही जीवन है। जीवन बड़ा अद्भुत है, यह असीम और अगाध है। यह अनंत रहस्यों को लिए हुए है, यह विशाल साम्राज्य है जहाँ हम मानव कर्म करते हैं। लेखक जीवन की क्षुद्रताओं से दुखी होता है। वह कहता है, हम अपने आपको आजीविका के लिए तैयार करते हैं तो हम जीवन का पूरा लक्ष्य से खो देते हैं। यह जीवन विलक्षण है। ये पक्षी, ये फूल, ये वैभवशाली वृक्ष, यह आसमान, ये सितारे, ये सरिताएँ, ये मत्स्य यह सब हमारा जीवन है। जीवन दीन है, जीवन अमीर भी।
जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सतत संघर्ष है, जीवन ध्यान है, जीवन धर्म है जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ है-ईष्याएँ, महत्वाकांक्षाएँ, वासनाएँ, भय सफलताएँ एवं चिन्ताएँ। केवल इतना ही नहीं अपितु इससे कहीं ज्यादा है। हम सदैव जीवन से भयाकुल, चिन्तित और भयभीत बने रहते हैं अतएव इस जीवन को समझने में शिक्षा हमारी मदद करती है। शिक्षा इस विशाल विस्तीर्ण जीवन, गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट को इसके समस्त रहस्यों को, इसकी अद्भुत रमणीयताओं को इसके दुखों और हर्षों को समझने में सहायता करती है।
प्रश्न 3.
बचपन से ही आपको ऐसे वातावरण में रहना अत्यन्त आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो। क्यों?
उत्तर-
बचपन से ही यदि व्यक्ति स्वतंत्र वातावरण में नहीं रहता है तो व्यक्ति में भय का संचार हो जाता है। यह भय मन में ग्रन्थि बनकर घर कर जाता है और व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा को दबा देता है। हममें से अधिकांश व्यक्ति ज्यों-ज्यों बड़े हो जाते हैं त्यों-त्यों ज्यादा भयभीत होते जाते हैं, हम जीवन से भयभीत रहते हैं, नौकरी के छूटने से, परंपराओं से और इस बात से भयभीत रहते हैं कि पड़ोसी, पत्नी या पति क्या कहेंगे, हम मृत्यु से भयभीत रहते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी रूप में भयभीत हैं और जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं है।
इसलिए हमें बचपन से ही ऐसे वातावरण में रहना चाहिए जहाँ भय न हो, जहाँ स्वतंत्रता हो, मनचाहे कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं अपितु एक ऐसी स्वतंत्रता जहाँ आप जीवन की संपूर्ण प्रक्रिया समझ सकें। हमने जीवन को कितना कुरूप बना दिया है। सचमुच जीवन के इस ऐश्वर्य और इसकी अनंत गहराई और इसके अद्भुत सौन्दर्य की मान्यता तो तभी महसूस करेंगे जब आप सड़े हुए समाज के खिलाफ विद्रोह करेंगे ताकि आप एक मानव की भाँति अपने लिए सत्य की खोज कर सकें।
प्रश्न 4.
जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं हो सकती। क्यों?
उत्तर-
हम जानते हैं कि बचपन से ही हमारे लिए ऐसे वातावरण में रहना अत्यन्त आवश्यक है जो स्वतंत्रतापूर्ण हो। हममें से अधिकांश व्यक्ति ज्यों-ज्यों बड़े होते जाते हैं, त्यों-त्यों ज्यादा भयभीत होते जाते हैं, हम जीवन से भयभीत रहते हैं, नौकरी के छूटने से, परंपराओं से और इस बात से भयभीत रहते हैं कि पड़ोसी या पत्नी या पति क्या कहेंगे, हम मृत्यु से भयभीत रहते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी रूप में भयभीत है और जहाँ भय है वहाँ मेधा नहीं है।
निस्संदेह यह मेधा शक्ति भय के कारण दब जाती है। मेधा शक्ति वह शक्ति है जिससे आप भय और सिद्धान्तों की अनुपस्थिति में स्वतंत्रता के साथ सोचते हैं ताकि आप अपने लिए सत्य की, वास्तविकता की खोज कर सकें। यदि आप भयभीत हैं तो फिर आप कभी मेधावी नहीं हो सकेंगे। क्योंकि भय मनुष्य को किसी कार्य को करने से रोकता है। वह महत्त्वाकांक्षा फिर चाहे आध्यात्मिक हो या सांसारिक, चिन्ता और भय को जन्म देती है। अत: यह ऐसे मन का निर्माण करने में सहायता नहीं कर सकती जो सुस्पष्ट हो, सरल हो, सीधा हो और दूसरे शब्दों में मेधावी हो।
प्रश्न 5.
जीवन में विद्रोह का क्या स्थान है?
उत्तर-
जब कोई व्यक्ति सचमुच जीवन के इस ऐश्वर्य की, इसकी अनंत गहराई और इसके अद्भुत सौन्दर्य की धन्यता महसूस कर लेता है तो जीवन के प्रति तनिक भी कसमसाहट का भाव आता है तो वह विद्रोह कर बैठता है, संगठित धर्म के विरुद्ध, परंपरा के खिलाफ और इस सड़े हुए समाज के खिलाफ ताकि एक मानव की भाँति लिए सत्य की खोज कर सके। जिन्दगी का अर्थ है अपने लिए सत्य की खोज और यह तभी संभव है जब स्वतंत्रता हो, जब आपके अंदर में सतत् क्रान्ति की ज्वाला प्रकाशमान हो। समाज में व्यक्ति सुरक्षित रहना चाहता है और साधारणतया सुरक्षा में जीने का अर्थ है अनुकरण में जीना अर्थात् भय में जीना। भय से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को विद्रोह करना पड़ता है अतः जीवन में विद्रोह का महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रश्न 6.
व्याख्या करें-यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा, सम्मान, शक्ति व आराम के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ जे. कृष्णमूर्ति द्वारा लिखित संभाषण ‘शिक्षा’ से ली गई है। इसमें संभाषक कहना चाहते हैं हमने ऐसे समाज का निर्माण कर रखा है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के विरोध में खड़ा है। चूंकि यह व्यवस्था इतनी जटिल है कि यह शोषक और शोषित वर्ग में बँट गया है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण हो रहा है। एक-दूसरे पर वर्चस्व के लिए आपस में होड़ है। यह पूरा विश्व ही अंतहीन युद्धों में जकड़ा हुआ है। इसके मार्गदर्शक राजनीतिज्ञ बने हैं जो सतत् शक्ति की खोज में लगे हैं। यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है। यह उन महत्त्वाकांक्षी स्त्री-पुरुषों की दुनिया है जो प्रतिष्ठा के पीछे दौड़े जा रहे हैं और इसे पाने के लिए एक-दूसरे के साथ संघर्षरत हैं।
दूसरी ओर अपने-अपने अनुयायियों के साथ संन्यासी और धर्मगुरु हैं जो इस दुनिया में या दूसरी दुनिया में शक्ति और प्रतिष्ठा की चाह कर रहे हैं। यह विश्व ही पूरा पागल है, पूर्णतया भ्रांत। यहाँ एक ओर साम्यवादी पूँजीपति से लड़ रहा है तो दूसरी ओर समाजवादी दोनों का प्रतिरोध कर रहा है। इसीलिए संभाषक कहता। है कि यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा, सम्मान, शक्ति व आराम के लिए संघर्ष कर रहा है। यह सम्पूर्ण विश्व ही परस्पर विरोधी विश्वासों, विभिन्न वर्गों, जातियों, पृथक्-पृथक् विरोधी राष्ट्रीयताओं और हर प्रकार की मूढ़ता और क्रूरता में छिन्न-भिन्न होता जा रहा है।
और हम उसी दुनिया में रह सकने के लिए शिक्षित किए जा रहे हैं। इसीलिए संभाषक को दुख है कि व्यक्ति निर्भयतापूर्ण वातावरण के बदले सड़े हुए समाज में जीने को विवश है। अतः हमें अविलंब एक स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण तैयार करना होगा ताकि हम उसमें रहकर अपने लिए सत्य की अविलम्ब एक स्वतंत्रतापूर्ण वातावरण तैयार करना होगा ताकि हम उसमें रहकर अपने लिए सत्य की खोज कर सकें, मेधावी बन सकें ताकि हम अपने अंदर सतत् एक गहरी मनोवैज्ञानिक विद्रोह की अवस्था में रह सकें।
प्रश्न 7.
नूतन विश्व का निर्माण कैसे हो सकता है?
उत्तर-
आज सम्पूर्ण विश्व में महत्त्वाकांक्षा तथा प्रतिस्पर्धा के कारण अराजकता फैली हुई है। विश्व के सभी देश पतन की ओर अग्रसर है। इसे रोकना मानव समाज के लिए एक चुनौती है। इस चुनौती का प्रत्युत्तर पूर्णता से तभी दिया जा सकता है जब हम अभय हों, हम एक हिन्दू या एक साम्यवादी या एक पूँजीपति की भाँति न सोचें अपितु एक समग्र मानव की भाँति इस समस्या का हल खोजने का प्रयत्न करें। हम इस समस्या का हल तब तक नहीं खोज सकते हैं जब तक कि हम स्वयं सम्पूर्ण समाज के खिलाफ क्रान्ति नहीं करते, इस महत्वाकांक्षा के खिलाफ विद्रोह नहीं करते जिस पर सम्पूर्ण मानव समाज आधारित है। जब हम स्वयं महत्वाकांक्षी न हों, परिग्रही न हों एवं अपनी ही सुरक्षा से न चिपके हों, तभी हम इस चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। तभी हम नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे।
प्रश्न 8.
क्रान्ति करना. सीखना और प्रेम करना तीनों पृथक-पृथक प्रक्रियाएँ नहीं हैं, कैसे?
उत्तर-
हमें यह मानकर चलना चाहिए कि विश्व में पहले से ही अराजकता फैली है। इसलिए हमारे समाज को अराजक स्थिति से निकालने के लिए समाज में क्रान्ति की आवश्यकता है। तभी हम सुव्यवस्थित समाज का निर्माण कर सकेंगे। यदि हम सचमुच इसका क्षय देखते हैं तो हमारे लिए एक चुनौती है। इस ज्वलन्त समस्या का हल खोजें। इस चुनौती का उत्तर हम किस प्रकार देते हैं यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है। इस ज्वलंत समस्या की खोज में समाज के खिलाफ क्रान्ति करें तभी इस चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकेंगे। इस दौरान हम जो भी करते हैं वह वास्तव में अपने पूरे जीवन से सीखते हैं।
तब हमारे लिए न कोई गुरु रह जाता है न मार्गदर्शक। हर वस्तु हमें एक नयी सीख दे जाती है। तब हमारा जीवन स्वयं गुरु हो जाता है और हम सीखते जाते हैं। जिस किसी वस्तु में सीखने के क्रम में गहरी दिलचस्पी रखते हैं उसके संबंध में प्रेम से खोजते हैं। उस समय हमारा सम्पूर्ण मन, सम्पूर्ण सत्ता उसी में रहती है। ठीक इसी भाँति जिस क्षण यह गहराई से महसूस कर लेते हैं कि यदि हम महत्वाकांक्षी नहीं होंगे तो क्या हमारा ह्रास नहीं होगा? यह अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। इस महत्वकांक्षा को पूरा करने के क्रम में क्रान्ति, सीखना, प्रेम सब साथ-साथ चलता है। अत: हम कह सकते हैं कि प्रेम, क्रान्ति और सीखना पृथक, प्रक्रियाएँ नहीं हैं।
शिक्षा भाषा की बात
प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों का पर्यायवाची लिखें सरिता, वसुधा, मत्स्य, चिड़िया, मनुष्य, नूतन
उत्तर-
- सरिता – नदी, तरंगिनी
- वसुधा – धरा, वसुन्धरा
- मत्स्य – मीन, मछली
- चिड़िया – खग, परिन्दा, पक्षी
- मनुष्य – मानव, व्यक्ति
- नूतन – नया, नवीन
प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों से क्रियापद और सर्वनाम चुनें
(क) आप विद्यालय क्यों जाते हैं?
क्रियापद – जाते हैं।
सर्वनाम – आप
(ख) हम कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लेते हैं।
क्रियापद – कर लेते हैं।
सर्वनाम – हम
(ग) कोई भी आपको यह नहीं कहता कि आप प्रश्न करें, स्वयं सोचकर देखें कि परमात्मा क्या है?
क्रियापद – कहता कि
सर्वनाम – आप
(घ) तभी आप नूतन विश्व का निर्माण कर सकेंगे।
क्रियापद – कर सकेंगे।
सर्वनाम – आप
(ङ) आप अपने आस-पास देखें और उन व्यक्तियों का निरीक्षण करें।
क्रियापद – देखें, निरीक्षण करें
सर्वनाम – आप
(च) जब आप वास्तव में सीख रहे होते हैं तब पूरा जीवन ही सीखते हैं।
क्रियापद – सीखते हैं।
सर्वनाम – आप
प्रश्न 3.
वाक्य प्रयोग द्वारा लिंग-निर्णय करें परंपरा, प्रयत्न, चुनौती, विश्व, प्रतिष्ठा, शक्ति, जीवन, स्वतंत्रता, शिक्षा, महत्त्वाकांक्षा।
उत्तर-
- परंपरा (स्त्री.)- हमारी परंपरा बड़ी पुरानी है।
- प्रयत्न (पु.)-मैं सोने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
- चुनौती (स्त्री.)-मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ।
- विश्व (पु.)-यह विश्व अंधविश्वास से भरा है।
- प्रतिष्ठा (स्त्री.)-मैं आपकी प्रतिष्ठा करता हूँ।
- शक्ति (पु.)-मोहन की शक्ति क्षीण हो गई।
- जीवन (पु.)-यह जीवन कष्ट से भरा है।
- स्वतंत्रता (स्त्री.)-हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता बड़ी मेहनत से मिली है।
- शिक्षा (स्त्री.)-शिक्षा हमें महान् बनाती है।
- महत्त्वाकांक्षा (स्त्री.)-उसकी महत्त्वाकांक्षा बड़ी है।
प्रश्न 4.
विपरीतार्थक शब्द लिखें प्रोत्साहन, स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा, संन्यासी, सम्पन्न, भय, समस्या, विद्रोह, सम्मान, परिग्रह
उत्तर-
- प्रोत्साहन – हतोत्साहन
- स्वतंत्रता – परतंत्रता
- प्रतिष्ठा – अप्रतिष्ठा
- संन्यासी – गृहस्थ
- संपन्न – विपन्न
- भय – निर्भय
- समस्या – निदान
- विद्रोह – समर्थन
- सम्मान – अपमान
- परिग्रह – अपरिग्रह
शिक्षा लेखक परिचय जे. कृष्णमूर्ति (1895-1986)
जीवन-परिचय-
बीसवीं शती के महान भारतीय जीवनद्रष्टा, दार्शनिक, शिक्षामनीषी एवं संत जे. कृष्णमूर्ति का जन्म 12 मई, 1895 के दिन चित्तूर, आन्ध्रप्रदेश के मदनपल्ली नामक स्थान पर हुआ। इनका पूरा नाम जिदू कृष्णमूर्ति था। इनकी माता का नाम संजीवम्मा तथा पिता का नाम नारायण जिद् था। दस वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता का निधन हो गया था। इस कारण इन्हें बचपन में मिलने वाले प्यार से वंचित रहना पड़ा। लेकिन इन्हें बचपन से ही विलक्षण मानसिक अनुभव हो गए थे। अपनी शिक्षा-दीक्षा के उपरान्त इन्होंने कुछ लेखन कार्य भी किया, लेकिन ये मूलतः वक्ता थे।
इन्होंने व्याख्यान भी किए, जिनके विषय शिक्षा, दर्शन एवं अध्यात्म से संबंधित थे। ये परंपरित शिक्षा प्रणाली से असन्तुष्ट थे, इसलिए उस प्रणाली में फेरबदल चाहते थे। किशोरावस्था में इनका संपर्क सी. डब्ल्यू. लीडबेटर एवं एनी बेसेन्ट से हो गया, जिन्होंने इनका संरक्षण भी किया। बाद में ये थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़े। लीडरबेटर तो इनमें ‘विश्व शिक्षक’ का रूप देखते थे। सन् 1938 में ये एतडुअस हक्सले के संपर्क में आए। इन्होंने कई देशों की यात्राएँ भी की। ये मूलतः सार्वभौम तत्त्ववेत्ता और परम स्वाधीन आत्मविद् थे अथवा इन्हें प्राचीन स्वाधीनता ऋषियों की परंपरा की एक आधुनिक कड़ी भी माना जा सकता है। मनुष्य को सच्ची शिक्षा प्रदान करने वाले इस महापुरुष का निधन 17 फरवरी, 1986 के दिन ओजई, कैलिफोर्निया में हुआ।
रचनाएँ : जे. कृष्णमूर्ति की प्रमुख रचनाएँ हैं-द फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम, द ऑनली रिवॉल्यूशन और कृष्णामूर्तिज नोट बुक आदि। इसके अतिरिक्त उनके व्याख्यानों के कई संग्रह विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हैं।
साहित्यिक विशेषताएं : जे. कृष्णमूर्ति कोई साहित्याकार नहीं थे, बल्कि वे तो एक दार्शनिक, शिक्षामनीषी एवं संत थे। वे प्रायः लिखते नहीं थे, अपित संभाषण करते थे। इनके संभाषणों को ही प्रकाशित किया गया है, जिनसे हमें ज्ञात होता है कि वे भारत के प्राचीन स्वाधीनचेता ऋषियों को परंपरा की एक आधुनिक कड़ी थे।
शिक्षा पाठ के सारांश
जे. कृष्णमूर्ति मानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य भी यही है। मनुष्य को पूरी तरह भारहीन, स्वतंत्र और प्रज्ञा निर्भर बनाना है। तभी उसमें सच्चा सहयोग, सद्भाव, प्रेम और करुणा सच्चा दायित्व बोध कराती है, हमें गहरा बनाती है। वह हमें सीमाओं और संकीर्णताओं से उबारती है। शिक्षा का ध्येय पेशेवर दक्षता, आजीविका और महज कुछ कर्म, कौशल ही नहीं है। उसका ध्येय हमारा सम्पूर्ण उन्नयन है। कृष्णमूर्ति अपने शिक्षा विषयक प्रयोगधर्मी चिन्तन. में आज की सभी प्रचलित प्रणालियों का भीतर-बाहर से पर्यालोचन करते हैं।
कृष्णमूर्ति प्रायः लिखते नहीं थे। वे बोलते संभाषण करते थे। प्रश्नकर्ताओं को उत्तर देते थे। यह शैली भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में अत्यन्त प्राचीन है। ‘शिक्षा’ नामक संभाषण के जरिए उनके विचारों एवं शिक्षा से लाभ की प्रेरणा मिलती है।
जे. कृष्णमूर्ति मानते हैं कि शिक्षा मनुष्य का उन्नयन करती है। वह जीवन के सत्य, जीवन जीने के तरीके में मदद करती है। इस संदर्भ को देते हुए वे बताते हैं कि शिक्षक हों या विद्यार्थी उन्हें यह पूछना आवश्यक नहीं कि वे क्यों शिक्षित हो रहे हैं। क्योंकि जीवन विलक्षण है। ये पक्षी ये फूल, ये वैभवशाली वृक्ष, ये आसमान, ये सितारे ये सरिताएँ, ये मत्स्य, यह सब हमारा जीवन है। जीवन समुदायों, जातियों और देशों का पारस्परिक सतत् संघर्ष है, जीवन ध्यान है जीवन धर्म भी है। जीवन गूढ़ है, जीवन मन की प्रच्छन्न वस्तुएँ हैं-ईर्ष्याएँ महत्त्वाकांक्षाएँ, वासनाएँ, भय, सफलताएँ चिन्ताएँ।
शिक्षा इन सबका अनावरण करती है। शिक्षा का कार्य है कि वह संपूर्ण जीवन प्रक्रिया को समझने में हमारी सहायता करे, न किस हमें केवल कुछ व्यवसाय या ऊँची नौकरी के योग्य बनाएँ। कृष्णमूर्ति कहते हैं कि हमें बचपन से ही ऐसे वातावरण में रहना चाहिए जहाँ भय का वास न हो नहीं तो व्यक्ति जीवन भर कुठित हो जाता है। उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ दब कर रह जाती है। मेधाशक्ति दब जाती है। मेधा शक्ति के बारे में कहते हैं कि मेधा वह शक्ति है जिससे आप भय और सिद्धान्तों की अनुपस्थिति में आप स्वतंत्रता से सोचते हैं ताकि आप सत्य की, वास्तविकता को अपने लिए खोज कर सकें।
पूरा विश्व इस भय से सहमा हुआ है। चूँकि यह दुनिया वकीलों, सिपाहियों और सैनिकों की दुनिया है। यहाँ प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी के विरोध में खड़ा है। किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचने के लिए प्रतिष्ठा सम्मान शक्ति व आराम के लिए संघर्ष कर रहा है। अतः निर्विकार रूप से शिक्षा का कार्य यह है कि वह इस अतिरिक्त और बाह्य भय का उच्छेदन करे।