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Chapter 3 तुलसीदास के पद

तुलसीदास के पद

तुलसीदास के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्न

निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
इनमें तुलसीदास की कौन–सी रचना है?
(क) उषा
(ख) पद
(ग) हार–जीत
(घ) अधिनायक
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
तुलसीदास के शिक्षा गुरु कौन थे?
(क) शेष सनातन जी
(ख) विद्यापति जी
(ग) शेषनाथ जी
(घ) कलानाथ जी
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
काशी में कितने वर्ष रहकर तुलसीदास विद्याध्ययन किए?
(क) 15 वर्षों तक
(ख) 10 वर्षों तक
(ग) 18 वर्षों तक
(घ) 20 वर्षों तक
उत्तर-
(क)

प्रश्न 4.
तुलसीदास का जन्म कब हुआ था?
(क) 1540 ई.
(ख) 1535 ई.
(ग) 1543 ई.
(घ) 1546 ई.
उत्तर-
(ग)

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
कबहुँक………….. अवसर पाई।
मेटिओ सुधि द्याइबी कछु करून–कथा चलाई।।
उत्तर-
अंब

प्रश्न 2.
बूझि हैं ‘सो है कौन’ कहिबी नाम………. जनाइ। सुनत रामकृपालु के मेरी बिगारिऔ बनि जाइ।।
उत्तर-
दसा

प्रश्न 3.
जानकी जगजननि जन की किए…….. सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव–नाथ–गुन–गन गाइ।।
उत्तर-
बचन

प्रश्न 4.
द्वार हौं भोर ही को आजु।।
रटत रिरिहा आरि और न कौर ही तें……….।।
उत्तर-
काजु

प्रश्न 5.
कलि कराल दुकाल………… सब कुभाँति कुसाजु।
नीचजन, मन ऊँच, जैसी कोढ़ में की खाजु।।
उत्तर-
दरुन

तुलसीदास के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
तुलसीदास किस शाखा के कवि हैं?
उत्तर-
राममार्गी।

प्रश्न 2.
दूसरे पद में तुलसी ने अपना परिचय किस रूप में दिया है?
उत्तर-
भिखारी के रूप में।

प्रश्न 3.
रामचरितमानस किसकी कृति है?
उत्तर-
तुलसीदास।

प्रश्न 4.
तुलसी को किस वस्तु की भूख है?
उत्तर-
भक्ति की।

प्रश्न 5.
‘कबहुँक अंब अवसर पाई’ यह ‘अंब’ संबोधन किसके लिए है?
उत्तर-
सीता के लिए।

प्रश्न 6.
तुलसीदास के पठित पद किस भाषा में है?
उत्तर-
अवधी।

तुलसीदास के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“कबहुँक अंब अवसर पाई।” यहाँ ‘अम्ब” संबोधन किसके लिए है? इस संबोधन का मर्म स्पष्ट करें।
उत्तर-
उपर्युक्त पंक्ति में ‘अंब’ का संबोधन माँ सीता के लिए किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने सीताजी को सम्मानसूचक शब्द ‘अंब’ के द्वारा उनके प्रति सम्मान की भावना प्रदर्शित
की है।

प्रश्न 2.
प्रथम पद में तुलसीदास ने अपना परिचय किस प्रकार दिया है? लिखिए।
उत्तर-
प्रथम पद में तुलसीदास ने अपने विषय में हीनभाव प्रकट किया है। अपनी भावना को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि वह दीन, पानी, दुर्बल, मलिन तथा असहाय व्यक्ति हैं। वे अनेकों अवगुणों से युक्त हैं। ‘अंगहीन’ से उनका आशय संभवतः ‘असहाय’ होने से है।

प्रश्न 3.
अर्थ स्पष्ट करें
(क) नाम लै भरै उदर एक प्रभु–दासी–दास कहाई।
(ख) कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़ में की खाजु॥
(ग) पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति–सुधा सुनाजु।
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पद्यांश का अर्थ है–तुलसीदास भगवान राम का गुणगान करके, उनकी कथा कहकर जीवन–यापन कर रहे हैं, अर्थात् सीता माता का सेवक बनकर राम कथा द्वारा परिवार का भरण–पोषण हो रहा है।

(ख) कलियुग का भीषण बुरा समय असह्य है तथा पूर्णरूपेण बुरी तरह अव्यवस्थित और दुर्गतिग्रस्त है। निम्न कोटि का व्यक्ति होकर बड़ी–बड़ी (ऊँची) बातें सोचना कोढ़ में खाज के समान है अर्थात् ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ कोढ़ में खुजली के समान है।

(ग) कवि को भक्ति–सुधा रूपी अच्छा भोजन करा कर उसका पेट भरें। इसमें गरीबों के मालिक श्रीराम से प्रार्थना की गयी है उन्हीं के भक्त तुलसीदास के द्वारा।

प्रश्न 4.
तुलसी सीता से कैसी सहायता मांगते हैं?
उत्तर-
तुलसीदास माँ सीता से भवसागर पार कराने वाले श्रीराम को गुणगान करते हुए मुक्ति–प्राप्ति की सहायता की याचना करते हैं। हे जगत की जननी अपने वचन द्वारा मेरी सहायता कीजिए।

प्रश्न 5.
तुलसी सीधे राम से न कहकर सीता से क्यों कहलवाना चाहते हैं?
उत्तर-
ऐसा संभवतः तुलसीदास इसलिए चाहते थे क्योंकि–

  1. उनको अपनी बातें स्वयं राम के समक्ष रखने का साहस नहीं हो रहा होगा, वे संकोच का अनुभव कर रहे होंगे।
  2. सीताजी सशक्त ढंग से (जोर देकर) उनकी बातों को भगवान श्रीराम के समक्ष रख सकेंगी। ऐसा प्रायः म देखा जाता है कि किसी व्यक्ति से उनकी पत्नी के माध्यम से कार्य करवाना अधिक आसान होता है।
  3. तुलसी ने सीताजी को माँ माना है तथा पूरे रामचरितमानस में अनेकों बार माँ कहकर ही संबोधित किया है। अत: माता सीता द्वारा अपनी बातें राम के समक्ष रखना ही उन्होंने श्रेयस्कर समझा।

प्रश्न 6.
राम के सुनते ही तुलसी की बिगड़ी बात बन जाएगी, तुलसी के इस भरोसे का क्या कारण है?
उत्तर-
गोस्वामी तुलसीदास राम की भक्ति में इतना अधिक निमग्न थे कि वह पूरे जगत को राममय पाते थे–”सिवा राममय सब जग जानि” यह उनका मूलमंत्र था। अतः उनका यह दृढ़ विश्वास था कि राम दरबार पहुँचते ही उनकी बिगड़ी बातें बन जाएँगे। अर्थात् राम ज्योंही उनकी बातों को जान जाएँगे, उनकी समस्याओं एवं कष्टों से परिचित होंगे, वे इसका समाधान कर देंगे। उनकी बिगड़ी हुई बातें बन जाएँगे।

प्रश्न 7.
दूसरे पद में तुलसी ने अपना परिचय किस तरह दिया है, लिखिए।
उत्तर-
दूसरे पद में तुलसीदास ने अपना परिचय बड़ी–बड़ी (ऊँची) बातें करनेवाला अधम (क्षुद जीव) कहा है। छोटा मुँह बड़ी बात (बड़बोला) करनेवाला व्यक्ति के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया है, जो कोढ़ में खाज (खुजली) की तरह है।

प्रश्न 8.
दोनों पदों में किस रस की व्यंजना हुई है।
उत्तर-
दोनों पदों में भक्ति–रस की व्यंजना हुई है। तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा जगत जननी सीता की स्तुति द्वारा भक्तिभाव की अभिव्यक्ति इन पदों में की है।

प्रश्न 9.
तुलसी के हृदय में किसका डर है?
उत्तर-
तुलसी की दयनीय अवस्था में उनके सगे–सम्बन्धियों आदि किसी ने भी उनकी सहायता नहीं की। उनके हृदय में इसका संताप था। इससे मुक्ति पाने के लिए उन्हें संतों की शरण में जाना पड़ा और उन्हें वहाँ इसका आश्वासन भी मिला कि श्रीराम की शरण में जाने से सब संकट दूर हो जाते हैं।

प्रश्न 10.
राम स्वभाव से कैसे हैं? पंठित पदों के आधार पर बताइए।
उत्तर-
प्रस्तुत पदों में राम के लिए संत तुलसीदासजी ने कई शब्दों का प्रयोग किया है जिससे राम के चारित्रिक गुणों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। श्रीराम को कवि ने कृपालु कहा है। श्रीराम का व्यक्तित्व जन–जीवन के लिए अनुकरणीय और वंदनीय है। प्रस्तुत पदों में तुलसी ने राम की कल्पना मानव और मानवेतर दो रूपों में की है। राम के कुछ चरित्र प्रगट रूप में और कुछ चरित्र गुप्त रूप में दृष्टिगत होता है। उपर्युक्त पदों में परब्रह्म राम ओर दाशरथि राम के व्यक्तित्व की व्याख्या की गयी है। राम में सर्वश्रेष्ठ मानव गुण है। राम स्वभाव से ही उदार और भक्तवत्सल है। दासरथि राम को दानी के रूप में तुलसीदासजी ने चित्रण किया है। पहली कविता में प्रभु, बिगड़ा काम बनाने वाले, भवना आदि शब्द श्रीराम के लिए आए हैं। इन शब्दों द्वारा परब्रह्म अलौकिक प्रतिभा संपन्न श्रीराम की चर्चा है।

दूसरी कविता में कोसलराज, दाशरथि, राम, गरीब नियाजू आदि शब्द श्रीराम के लिए प्रयुक्त हुए हैं। अतः, उपर्युक्त पद्यांशों के आधार पर हम श्रीराम के दोनों रूपों का दर्शन पाते हैं। वे दीनबन्धु, कृपालु, गरीबों के त्राता के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। दूसरी ओर कोसलराजा दशरथ राज आदि शब्द मानव राम के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार राम के व्यक्तित्व में भक्तवत्सलता, शरणागत वत्सलता, दयालुता अमित ऐश्वर्य वाला, अलौकिकशील और अलौकिक सौन्दर्यवाला के रूप में हुआ है।

प्रश्न 11.
तुलसी को किस वस्तु की भूख है?
उत्तर-
तुलसीजी गरीबों के त्राता भगवान श्रीराम से कहते हैं कि हे प्रभु मैं आपकी भक्ति का भूखा जनम–जनम से हूँ। मुझे भक्तिमयी अमृत का पान कराकर क्षुधा की तृप्ति कराइए।

प्रश्न 12.
पठित पदों के आधार पर तुलसी की भक्ति–भावना का परिचय दीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पद्यांशों में कवि तुलसीदास ने अपनी दीनता तथा दरिद्रता में मुक्ति पाने के लिए माँ सीता के माध्यम से प्रभु श्रीराम के चरणों में विनय से युक्त प्रार्थना प्रस्तुत करते हैं। वे स्वयं को प्रभु का दास कहते हैं। नाम ले भरै उदर द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि श्रीराम के नाम–जप ही उनके लिए सब कुछ है। नाम–जप उनकी लौकिक भूख भी मिट जाती है। संत तुलसीदास में अपने को अनाथ कहते हुए कहते हैं कि मेरी व्यथा गरीबी की चिन्ता श्रीराम के सिवा दूसरा कौन बुझेगा? श्रीराम ही एकमात्र कृपालु हैं जो मेरी बिगड़ी बात बनाएँगे।

माँ सीता से तुलसीदासजी प्रार्थना करते हैं कि हे माँ आप मुझे अपने वचन द्वारा सहायता कीजिए यानि आशीर्वाद दीजिए कि मैं भवसागर पार करनेवाले श्रीराम का गुणगान सदैव करता रहूँ। दूसरे पद्यांश में कवि अत्यन्त ही भावुक होकर प्रभु से विनती करता है कि हे प्रभु आपके सिवा मेरा दूसरा कौन है जो मेरी सुध लेगा। मैं तो जनम–जनम का आपकी भक्ति का भूखा हूँ। मैं तो दीन–हीन दरिद्र हूँ। मेरी दयनीय अवस्था पर करुणा कीजिए ताकि आपकी भक्ति में सदैव तल्लीन रह सकूँ।

प्रश्न 13.
‘रटत रिरिहा आरि और न, कौर हीतें काजु।’–यहाँ ‘और’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-
प्रस्तुत काव्य पंक्ति तुलसी के दूसरे पद से ली गयी हैं। इसमें ‘और’ का प्रयोग दूसरा कुछ नहीं के अर्थ में हुआ है। लेकिन भाव राम भक्ति से है।

तुलसीदास स्वयं को कहते हैं कि हे श्रीरामचन्द्रजी। आज सबेरे से ही मैं आपके दरवाजे पर अड़ा बैठा हूँ। रें–रें करके रट रहा हूँ, गिड़गिड़ाकर भोग रहा हूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिए एक कौर टुकड़े से ही काम बन जाएगा। यानि आपकी जरा–सी कृपा दृष्टि से मेरा सारा काम पूर्ण हो जाएगा। यानि जीवन सार्थक हो जाएगा। यहाँ और का प्रयोग भक्ति के लिए प्रभु–कृपा जरूर है के संदर्भ में हुआ है।

प्रश्न 14.
दूसरे पद में तुलसी ने ‘दीनता’ और ‘दरिद्रता’ दोनों का प्रयोग क्यों किया है?
उत्तर-
तुलसी ने अपने दूसरे पद में दीनता और दरिद्रता दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। शब्दकोश के अनुसार दोनों शब्दों के अर्थ एक–दूसरे से सामान्य तौर पर मिलते–जुलते हैं, किन्तु प्रयोग और कोशीय आधार पर दोनों में भिन्नता है।।

  1. दीनता का शाब्दिक अर्थ है–निर्धनता, पराधनीता, हीनता, दयनीयता आदि।
  2. दरिद्रता का शाब्दिक अर्थ है–भूपवित्रता, अरूचि, अशुद्धता, दरिद्रता और घोर गरीबी में जीनेवाला। निर्धनता के कारण समाज में उसे प्रतिष्ठा नहीं मिलती है इससे भी उसे अपवित्र माना जाता है।
  3. दरिद्र दुर्भिक्ष और अकाल के लिए भी प्रयुक्त होता है।

संभव है तुलसीदासजी अपने दीन–हीन दशा के कारण अपने को अशुद्ध/अशुचि के रूप में देखते हैं। एक का अर्थ गरीबी, बेकारी, बेबसी के लिए और दूसरे का प्रयोग अशुद्धि, अपवित्रता के लिए हुआ हो। तीसरी बात भी है–तुलसीदास जी जब इस कविता की रचना कर रहे थे तो उस समय भारत में भयंकर अकाल पड़ा था जिसके कारण पूरा देश घोर गरीबी, भूखमरी का शिकार हो गया था। हो सकता है कि अकाल के लिए भी प्रयोग किया हो। कवि अपने भावों के पुष्टीकरण के लिए शब्दों के प्रयोग में चतुराई तो दिखाते ही हैं।

प्रश्न 15.
प्रथम पद का भावार्थ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-
प्रथम पद में तुलसीदास सीता जी को माँ कहकर संबोधित करते हैं, वे कहते हैं कि माँ ! जब कभी आप उचित अवसर समझें तब कोई करुण प्रसंग चलाकर श्रीराम की दया मन:स्थिति में मेरी याद दिलाने की कृपा करना। तुलसीदास अपनी दयनीय स्थिति श्रीराम को बताकर अपनी बिगड़ी बात बनाा चाहते हैं। अर्थात् वे अपने दुर्दिनों का नाश करना चाहते हैं। वे माँ से अनुनय विनय करते हैं कि वे ही उन्हें इस भवसागर से पार करा सकती है। वे कहते हैं कि हे माँ.! मेरा उद्धार तभी होगा जब आप श्रीराम से मेरे लिए अनुनय विनय करके मेरा उद्धार करवाओगी। उन्हें श्रीराम पर अटूट श्रद्धा तथा विश्वास है।

तुलसीदास के पद भाषा की बात

प्रश्न 1.
दोनों पदों से सर्वनाम पद चुनें।
उत्तर-
सो, कौन, मेरी, तव, मोहूसे, तिन्ह, तू

प्रश्न 2.
दूसरे पद से अनुप्रास अलंकार के उदाहरण चुनें।
उत्तर-

  • रटत रिरिहा आकि और न कौर
  • कलि कराल दुकाल दारुन
  • कुभाँति कुसाजु
  • नीच जन मन
  • हहरि हिय
  • साधु–समाजु
  • कहुँ कतहुँ कोउ
  • कहयो कोसलराजु
  • दीनता–दारिद्र दलै
  • दानि दसरथरायके
  • भूखो भिखारी
  • सुधा सुनाजु

प्रश्न 3.
पठित अंशों से विदेशज शब्दों को चुनें।
उत्तर-
रिरिहा, आरि, तब, कहिबी, झाइबी

प्रश्न 4.
पठित पद किस भाषा में हैं?
उत्तर-
पठित पद अवधी भाषा में हैं।

प्रश्न 5.
‘कोढ़ में खाज होना’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-
कोढ़ में खाज होना का अर्थ दुखी व्यक्ति को और अधिक दुःख देना।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित शब्दों का खड़ी बोली रूप लिखें जनमको, हौं, तुलसिहि, भगति, मोहुसे, कहुँ, कतहुँ
उत्तर-

  • जनमको – जन्म से
  • तुलसिहि – तुलसी की।
  • भगति – भक्ति
  • मोहुसे – मुझसे
  • कहुँ – कहना
  • कतहुँ – कहीं

तुलसीदास पद कवि परिचय (1543–1623)

जीवन–परिचय–
तुलसीदास को हिन्दी साहित्य का जाज्वल्यमान सूर्य माना जाता है, इनका काव्य हिन्दी साहित्य का गौरव है। गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं। वैसे तो वे समूचे भक्ति काव्य के ही प्रमुख आधार–स्तम्भ हैं। उन्होंने समस्त वेदों, शास्त्रों, साधनात्मक मत–वादों और देवी–देवताओं का समन्वय कर जो महान कार्य किया, वह बेजोड़ है।

विभिन्न विद्वानों के मतानुसार तुलसीदास का जन्म सन् 1543 ई. में बाँदा जिले (उ.प्र.) के राजापुर नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। ये मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे। इस नक्षत्र में बालक का जन्म अशुभ माना जाता है इसलिए उनके माता–पिता ने उन्हें जन्म से ही त्याग दिया था। इस कारण बालक तुलसीदास को भिक्षाटन का कष्ट उठाना पड़ा और कष्टों भरा बचपन व्यतीत करना पड़ा।

कुछ समय उपरान्त बाबा नरहरिदास ने बालक तुलसीदास का पालन–पोषण किया और उन्हें शिक्षा–दीक्षा प्रदान की। तुलसीदास का विवाह दीनबन्धु दास की पुत्री रत्नावली से हुआ। पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्ति होने के कारण एक बार वे पत्नी के मायके जाने पर उसके पीछे–पीछे अपने ससुराल जा पहुँचे थे। तब पत्नी ने उन्हें फटकारते हुए कहा था–

लाज न आवत आपको, दौरे आयह साथ।
धिक–धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थि चर्ममय देह मम, तामैं ऐसी प्रीति।
ऐसी जौ श्रीराम में, होति न भवभीति।

पत्नी की इस फटकार ने पत्नी आसक्त विषयी तुलसी को महान रामभक्त एवं महाकवि बना दिया। उनका समस्त जीवन प्रवाह ही बदल गया। तुलसी ने साधना प्रारंभ कर दी। रामानन्द से रामभक्ति की दीक्षा ली और उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने काशी व चित्रकूट में रहकर अनेक काव्यों की रचना की। सन् 1623 ई. में (सम्वत् 1680) श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन तुलसीदास ने असीघाट पर प्राण त्यागे थे। उनकी मृत्यु के बारे में कहा जाता है–

संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ल सप्तमी, तुलसी तजै शरीर॥

रचनाएँ–’रामचरितमानस’ तुलसीदास द्वारा रचित विश्व प्रसिद्ध रचना है। उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की संख्या 40 तक बताई जाती है। पर अब तक केवल 12 रचनाएँ ही प्रमाणिक सिद्ध हो सकी हैं।

तुलसीदास के पद कविता का सारांश

प्रस्तुत दोनों पदों में महाकवि तुलसीदास की अपने आराध्य भगवान श्रीराम के प्रति अटूट एवं अडिग आस्था प्रकट हुई है। इन पदों में कवि की काव्य और कला संबंधित विशिष्ट प्रतिभा की अद्भुत झलक मिलती है।

प्रथम पद कवि द्वारा रचित विनय पत्रिका के ‘सीता स्तुति खंड’ से उद्धृत है। कवि ने राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न आदि की विधिपूर्वक स्तुति करने के बाद सीताजी की स्तुति की है। उसने सीता को माँ कहकर संबोधित करते हुए अपनी भक्ति और श्रीराम के मध्य, माध्यम बनने का विनम्र अनुरोध किया है, जिससे उसके आराध्य श्रीराम उसकी भक्ति से प्रभावित होकर उसका इस भव सागर से उद्धार कर दें। उसने उचित समय पर ही अपने अनुरोध को श्रीराम के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रार्थना की है जिससे वे दयार्द्र हो उसकी भी बिगड़ी बना दें।

द्वितीय पद में कवि ने श्रीराम के प्रति अटूट विश्वास एवं अडिग आस्था प्रकट करते हुए. उनसे अपनी दीन–हीन अवस्था का वर्णन किया है। वह अपने आराध्य देव से अत्यन्त विनम्रता पूर्वक उनकी अनुकम्पा का एक टुकड़ा पाने की आकांक्षा से भीख माँग रहा है। वह अपने प्रभु की भक्ति–सुधा से अपना पेट भर लेना चाहता है।

पदों का भावार्थ।

प्रथम पद :
कबहुँक अंब अवसर पाइ।
मरिओ सुधि द्याइबी कछु करुन–कथा चलाइ।।
दीन सब अंगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु–दासी–दास कहाई॥
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाई।
सुनत रामकृपालु के मेरी बिगारिऔ बनी जाइ।।
जानकी जगजनीन जन की किए बचन–सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव–नाथ–गुन–गन गाइ।।

भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियाँ “विनय पत्रिका’ काव्य कृति से ली गयी है। विनय पत्रिका की रचना करने के पीछे कवि का उद्देश्य है कि कविता रूपी पत्र के माध्यम से अपनी दीनता पीड़ा–व्यथा को प्रभु श्रीराम के चरणों में पहुँचाना। इसमें सभी देवों की स्तुतियाँ की गयी हैं. और उन्हीं के माध्यम से प्रभु के प्रति भक्ति–भावना भी प्रदर्शित की गयी है। विनय के साथ भक्ति, निष्ठा, विश्वास के द्वारा अपनी निजी व्यथा को प्रभु श्रीराम के चरणों में पहुँचाने के पीछे कवि की निजी पीड़ा ही नहीं है, बल्कि इसमें उस काल की अनेक राष्ट्रीय समस्याओं का परोक्ष रूप से वर्णन है। उन विषम परिस्थितियों से मुक्ति दिलाने वाले एकमात्र कोई है तो वह श्रीराम ही हैं। अतः, संत तुलसीदासजी ने वृहत् मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति और संकट समाधान के लिए विनय पत्रिका की रचना की जिसमें कवि की निजता भी समावेशित है।

उपर्युक्त पंक्तियों में माँ सीता की वंदना करते हुए कवि विनती करता है कि हे माँ कभी अवसर पाकर मेरी विनती प्रभु श्रीराम के चरणों में प्रस्तुत करना। मेरी करुण कथा की चर्चा करते. : हुए मेरे प्रति प्रभु–कृपा के लिए याद दिलाना। उन्हें याद दिलाना कि आपकी दास का एक भक्त।

आपका नाम–जप एवं भजन के द्वारा अपनी जीविका चला रहा है। मेरी दीन–हीन अवस्था की सुधि श्रीराम को छोड़कर कौन लेगा? श्रीराम की अगर कृपा हो जाएगी तो मेरी दीन–दशा सुधर जाएगी। है जगत की जननी, मेरी तुमसे विनती है कि अपनी कृपा कर मुझ असहाय की सहायता करें। तुलसीदास भवसागर पार करानेवाले प्रभु श्रीराम का गुणगान करते हुए दीनता से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।

दूसरा पद :
द्वार हौं भोर ही को आजु।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर हो तें काजु ||
कलि कराल दुकाल, दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन, ऊँच, जैसी कोढ़ में की खाजु।।
हहरि हिय में सदय बूझयो जाइ साधु–समाजु।।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कहयो कोसलराजु।
दीनता–दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु।।
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति–सुधा सुनाजु।।

भावार्थ : प्रस्तुत पंक्तियों में तुलसीदासजी ने अपनी दीनता का वर्णन करते हुए उस समय के भीषण दुर्भिक्ष काल का भी यथार्थ चित्रण किया है। तुलसीदासजी को उनके सगे–सम्बन्धियों ने ऐसा छोड़ा दिया है कि फिर कभी उनकी ओर भूलकर भी देखा नहीं। उनके हृदय में इसका जो संताप था इसको दूर करने के लिए उनको संतों की शरण में जाना पड़ा और उनका आश्वासन भी मिला तब उनको विश्वास हो गया कि राम की शरण में जाने से सब संकट दूर हो जाता है। तुलसीदास ने इसका भी उल्लेख किया है।।

तुलसीदास अपने–आप सन्त समाज में गए और गए भी तो अपनी समझ से। उस समय उनकी अवस्था ऐसी थी कि वह अपने भविष्य की चिन्ता कर सकते थे और अपनी परिस्थिति को स्पष्ट कर सकते थे। साथ ही इतना और भी कहा जा सकता है कि तुलसीदास को यह दिन किसी कराल, दारुण, दुकाल के कारण देखना पड़ा था क्योंकि इसका भी निर्देश प्रथम पद में है ही। तो क्या यह कहना यथार्थ न होगा कि तुलसी की दीनता और तुलसी की दरिद्रता का मुख्य कारण दारुण अकाल ही था।

अकालों की कोई ऐसी सूची हमारे सामने प्रस्तुत नहीं है जिससे कि हम उस समय की वस्तुस्थिति को ठीक–ठीक समझ सकें। तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो कराल दारुण, दुकाल संवत 1613 में पड़ा था और जिसमें मनुष्य मनुष्य को खाने तक लगा था, वहीं तुलसीदास की इस यातना का भी कारण रहा होगा, और इसी क्रूरता से दहलकर ही वे संत शरण में गए होंगे। इस संकट का इन पंक्तियों में संत कवि तुलसीदासजी ने माँ सीता को भगवान श्रीरामचन्द्र के सामने बड़ी चतुराई से उपस्थित करने को कहा है।

वे कहते हैं कि हे माँ आप कहिएगा कि आपकी दासी का दास (तुलसी का नाम वाला) व्यक्ति आपका ही नाम लेकर जी रहा है। यह अस्पष्ट बात सुनकर श्रीरामजी को स्वभावतया नाम जानने की उत्सुकता होगी। वंदना प्रकरण के अनन्तर भक्तिवर तुलसीदासजी ने अपने स्वामी से दैन्य–निवेदन आरंभ किया है। अपने प्रभु के महत्त्व, औदार्य, शील और जीव के असामर्थ्य को दिखाते हुए उसके उद्धार की याचना की है। उन्होंने बीच–बीच में अपने नैतिक उत्थान की अभिलाषा भी व्यक्त की है।

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